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कर्मस्तव
की फलप्रद शक्ति उस कर्म के स्वभावानुसार ही तीव्र या मन्द फल देती है और ज्ञान की आवृत करने का ही काम करती है, लेकिन दर्शनादरण, वेदनीय आदि अन्य कर्म के स्वभावानुसार फल नहीं देती है। इसी प्रकार अन्य कर्मों की फलप्रद शक्ति के लिए भी समझना चाहिये।
कर्म के स्वभावानुसार फल देने का नियम मूलप्रकृतियों में ही लागू होता है, उत्तरप्रकृतियों में नहीं। क्योंकि अध्यवसाय के बल से किसी भी कर्म की एक उत्तरप्रकृति उसी कर्म की दूसरी उत्तरप्रकृति के रूप में भी बदल सकती है। जिससे पहले की फलप्रद शक्ति परिवर्तित उत्तरप्रकृति के स्वभावानुसार तीन या मन्द फल प्रदान करती है । जैसे मतिज्ञानावरण जब श्रुतज्ञानावरण आदि सजातीय उत्तरप्रकृति के रूप में परिवर्तित होता है, तब मतिज्ञानावरण की फलप्रद शक्ति श्रुतज्ञानावरण आदि के स्वभावानुसार ही श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान आदि को आवृत करने का कार्य करती है।
लेकिन सभी उत्तरप्रकृतियों के लिए यह नियम लागू नहीं होता है। कितनी ही उत्तरप्रकृतियाँ ऐसी भी हैं जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमित नहीं होती हैं, जैसे- दर्शनमोह और चारित्रमोह । दर्शनमोह चारित्नमोह के रूप में अथवा चारित्रमोह दर्शनमोह के रूप में संक्रमण नहीं करता है। इसी तरह आयुकर्म की चारों आयुओं में परस्पर अन्य आयु के रूप में संक्रमण नहीं होता है।
सामान्यतया उदययोग्य प्रकृतियाँ १२२ हैं और बन्धयोग्य १२० प्रतियो मानी जाती हैं। इस प्रकार उदय और बन्धयोग्य प्रकृतियों में दो का अन्तर है, जो नहीं होना चाहिए। क्योंकि जितनी प्रकृतियों का बन्ध हो, उतनी ही प्रकृतियों को उदययोग्य माना जाना चाहिए । उस स्थिति में बिना कर्मबन्ध के कर्मफल भोगना माना जायगा, जो सिद्धान्तविरुव है । इसका स्पष्टीकरण नीचे लिखे अनुसार है---