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द्वितीय कर्मग्रन्थ
बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों की अपेक्षा १२२ प्रकृतियों को उदययोग्य बताने के कारण यह है कि बन्ध केवल मिथ्यात्वमोहनीय का ही होता है और वह मिथ्यात्वमोहनीय जब परिणामों की विशुद्धता से अर्द्ध विशुद्ध और शुद्ध रूप हो जाता है, तब मिश्रमोहनीय (सम्यम्मिथ्यात्वमोहनीय) तथा सम्यक्त्वमोहनीय के रूप से उदय में आने से बन्धयोग्य १२० में इन दोनों को मिलाने पर गुल १२२ प्रकृतियाँ उदय और उदीरणायोग्य मानी जाती हैं।
उदय और उदीरणा योग्य १२२ कर्मप्रकृतियां इस प्रकार हैं
ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नाम ६७, गोत्र २ और अन्तराय ५। इस प्रकार ५+६-२+२८+ ४+६७+२+५= १२२ हो जाती हैं ।
उदययोग्य १२२ कर्मप्रकृतियों में से मिश्रमोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में, सम्यक्त्वमोहनीय का उदय चौथे गुणस्थान में, आहारकद्रिक (आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग) का उदय प्रमत्त गुणस्थान में और तीर्थङ्करनाम का उदय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होने से इन पांच कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष ११७ प्रकृतियों का उदय पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में माना जाता है। अर्थात् उक्त पांच प्रकृतियों का अनुदय होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं।
इस प्रकार उदय और उदीरणा का लक्षण और सामान्य से उदययोग्य प्रकृत्तियों की संख्या, उसका कारण तथा पहले गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या और सम्बन्धित कारण को बतलाने के बाद अब दुसरे सासादन गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमतविरत गणस्थान पर्यन्त ६ गुणस्थानों की उदययोग्य प्रकृतियों की संख्या आदि का कथन करते हैं