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द्वितीय कर्मग्रन्थ
मोहनीय, आहारकद्विक और तीयङ्करनाम-इन पांच प्रकृतियों का उदय न होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का उदय हो सकता है। विशेषार्थ-आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मदलिकों का अपने नियत समय पर शुभाशुभ फलों का अनुभव कराना उदय है एवं कर्मदलिकों को प्रयत्न विशेष से खींचकर नियत समय से पहले ही उनके शुभाशुभ फलों को भोगना उदीरणा कहलाती है। ___ कोई भी कर्म जिस समय बंधता है, उसी समय से उसकी सत्ता शुरू होती है और जिस कर्म का जितना अबाधाकाल हो, उसके पूरे होने पर ही उन कर्मों की उदय में आने के लिए कर्मदलिकों को एक प्रकार की रचना-विशेष होती है और कर्म उदयावलिका में स्थित होकर, उदय में आकर फल देना प्रारम्भ कर देता है। __ कर्मों के शुभाशुभ फल को भोगने का ही नाम उदय और उदीरणा है किन्तु उनमें भेद इतना है कि उदय में प्रयत्न बिना ही स्वाभाविक क्रम से फल का भोग होता है और उदीरणा में फलोदय के अप्राप्तकाल में प्रयत्न द्वारा कर्मों को उदयोन्मुख करके फल का भोग होता है। कर्मविपाक के वेदन को उदय तथा उदीरणा कहने के प्रसंग में रसोदय को ग्रहण करना चाहिए, किन्तु प्रदेशोदय को उदयाधिकार में ग्रहण करना इष्ट नहीं ।
प्रत्येक कर्म में बन्ध के समय उसके कारणभूत काषायिक अध्यवसाय के तीन-मन्द भाव के अनुसार तीव्र-मन्द फल देने की शक्ति उत्पन्न होती है और अवसर आने पर तदनुसार फल देता है। परन्तु इस विषय में इतना समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक फलप्रद शक्ति स्वयं जिस कर्म में निहित हो, उसी कर्म के स्वभाव, प्रकृति के अनुसार ही फल देती है, दूसरे कर्मों के स्वभावानुसार नहीं । जैसे ज्ञानावरणकर्म