Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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वित्तीय कर्मग्रन्थ
(१) कषाय और योग-ये दोनों ही बन्धहेतु हैं । (२) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये चार बन्धहेतु हैं । (३) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांचों
बन्धहेतु हैं। इस तरह से संख्या और नामों के भेद रहने पर भी तात्त्विक दृष्टि से इन तीनों परम्पराओं में कामहीं है । वाक प्रमाद एक प्रकार का असंयम ही तो है। अतः वह अविरति या कषाय के अन्तर्गत ही है और बारीकी से देखने पर मिथ्यात्व और असंयम ये दोनों कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते अतः कषाय और योग इन दोनों को ही बन्धहेतु माना जाता है। ___ कर्मग्रन्थों में आध्यात्मिक विकास की भूमिका रूप गुणस्थानों में बंधने वाली कर्मप्रकृतियों के तरतमभाव के कारण को बतलाने के लिए मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार बन्धहेतुओं का कथन किया जाता है और इनके माध्यम से जीव की विकास स्थिति का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है । इसलिए जिस गुणस्थान में उक्त चार में से जितने अधिक बन्धहेतु होंगे, उस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी उतना ही अधिक होगा और जहां पर ये बन्धहेतु कम होंगे, वहाँ पर कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी कम ही होगा । अर्थात् मिथ्यात्व आदि चार हेतुओं के कथन की परम्परा अलग-अलग गुणस्थानों में तरतमभाव को प्राप्त होने वाले कर्मबन्ध के कारणों का स्पष्टीकरण करने के लिए कर्मग्रन्थों में ग्रहण की जाती है । ___ कर्मप्रकृतियों के बन्ध के विषय में यह एक साधारण-सा नियम है कि जिन कर्मप्रकृतियों का अन्ध जितने कारणों से होता है, उतने कारणों के रहने तक ही उन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता रहता है