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P वितीय कर्मग्रन्थ
में ग्यारहवे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक की बन्धयोग्य प्रकृतियों को ! बतलाते हैं।
चउर्वसणुच्चजसनाणविग्धवसगं ति सोलसुच्छेओ। तिसु सायबन्ध छेओ सजोगि बन्धं तुणंतो अ ॥१२॥ गाथार्थ-चार दर्शनावरणीय, उच्चगोत्र, यशःकातिनाम और ज्ञानावरणीय-अन्तराय दशक (ज्ञातावरणीय की पांच और अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ) इन सोलह प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्त में हो जाने से ग्यारह, बारह
और तेरह-इन तीन गुणस्थानों में सिर्फ सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है और सयोगिकेवली गुणस्थान में उसका भी विच्छेद होने से चौदहवें गुणस्थान में उसके भी बन्ध का अन्त हो जाता है। विशेषार्थ-गाथा में ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में बन्धयोग्य प्रकृतियों का निर्देश करते हुए चौदहवें गुणस्थान की अबन्धदशा और उसके कारण को बतलाया है।
यद्यपि दसवें गुणस्थान में बन्ध के वास्तविक कारण स्थूल लोभकषाय का उदय नहीं रहता है, किन्तु सूक्ष्म-सी लोभ कषाय रहती है, जो बन्ध का कारण नहीं है। फिर भी कषाय का अति सूक्ष्म अंश दसवें गुणस्थान में है, इसलिए बन्ध के कारण कषाय और योग के वहाँ रहने से कषाय निमित्तक चार दर्शनावरण (चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण), उच्चगोत्र, यशःकीर्तिनाम, पांच ज्ञानावरण (मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण), पांच अन्तराय (दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगन्तिराय, उपभोगान्तराय, दीर्या