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कर्मस्तव
न्तराय) -- ये १६ प्रकृतियाँ और योगनिमित्तिक सातावेदनीय कुल १७ प्रकृतियों का बन्ध दसवें गुणस्थान में होता है
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दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्म कषायांश के नष्ट हो जाने से तन्निमित्तिक चार दर्शनावरण आदि उक्त १६ प्रकृक्तियों का बन्धविच्छेद हो जाता है, किन्तु योग का सद्भाव है, इसलिए ग्यारहवें - उपशान्त कषाय- वीतराग छद्मस्थ, बारहवें - क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ और तेरहवें - सयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानों में सिर्फ योगनिमित्त सातावेदनीय प्रकृति बन्धयोग्य रहती है।
इसके अनन्तर चौदहवें - अयोगिकेवली गुणस्थान में बन्ध के कारण योग का भी अभाव होने से न तो किसी कर्म का बन्ध ही होता है और न बन्धविच्छेद ही इसलिए चौदहवें गुणस्थान में अबन्धकत्व अवस्था प्राप्त होती है ।
यह अबन्धकत्व अवस्था प्राप्त करना जीव का लक्ष्य है और उसकी प्राप्ति के बाद जीव अपने स्वरूप में रमण करता रहता है ।
पूर्वोक्त प्रकार से चौदह गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या, नाम और बन्धविच्छेद को बतलाया गया है । कर्मबन्ध के मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योगये पाँच कारण हैं। इन बन्ध के कारणों की संख्या के बारे में निम्नलिखित तीन परम्परायें देखने में आती हैं
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१. तुलना करो -
पढमं त्रिग्धं दंसणच उजसउच्चं च गुहुमन्ते । २. उवसंतखीणमोहे जोगिन्हिय समवियदी सादं ।
- गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, १०२ ३. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपायोगा बन्धहेतवः । – तत्वार्थसूत्र ८-१
- गो० कर्मकाण्ड, १०१