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द्वितीय कर्मग्रन्ध
अडवन्न अपुष्वाइमि निद्ददुगंतो छपन्न पणभागे । सुरग पणिवि सुखगइ तसनव उरलविणु तणुवंगा ॥६॥ समचउर निमिण जिण वण्णाहुन छलि बीरगो। चरमे छवीसबन्धो हासरईकुच्छभयभेओ ॥१०॥ अनियट्टि भागपणगे, इगेगहीणो दुवोसबिहबन्धो। पुमसंजलणचउण्हं, कमेण लेओ सतर सुहमे ॥११॥ गाथार्थ-अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रारम्भ में अट्ठावन और निद्राद्विक का अन्त करने से पाँच भागों में छप्पन तथा छठे भाग में सुरद्रिक, पंचेन्द्रियजाति, शुभविहायोगति, सनवक, औदारिकशरीर के सिवाय शेष शरीर और अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, निर्माण, जिननाम, वर्णचतुष्क और अगुरुलबुचतुष्क इन तोस प्रकृतियों का अन्त करने से अन्तिम भाग में छब्बीस प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा हास्य, रति, जुगुप्सा और भय का अन्त करने से अनिवृत्तिगुणस्थान में बाईस प्रकृतियों का बन्ध होता है। अनन्तर पुरुषवेद् और संज्वलन कषायचतुष्का में गे क्रमशः एक के बाद एक काम करने, छेद होने से सूक्ष्मसंपराय में सत्रह प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में आठवें अपुर्वकरण, नौवें अनिवृत्तिबादरसंपराय और दसवें सूक्ष्मसंपराय इन तीन गुणस्थानों की बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या और उनके नाम बताये हैं। उनमें से सर्वप्रथम आठवें गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या, नाम, बन्धविच्छेद प्रकृति संख्या और उनके कारण आदि को समझाते हैं।
सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के सब गुणस्थानों में परिणाम इतने स्थिर और शुद्ध हो जाते हैं कि जिससे उन गुणस्थानों में आयु