Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
लेकिन छठे गुणस्थान में ही देवायु का बन्धविच्छेद करके सातवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले दूसरे प्रकार के जीवों की अपेक्षा अरति, शोक आदि छह प्रकृतियों एवं देवायु, कुल ७ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में होने से ६३ प्रकृतियों में से शेष रही ५६ प्रकृतियों के साथ आहारकद्विक को मिलाने से सातवें गुणस्थान में ५८ प्रकृत्तियों का बन्ध माना जाता है।
उक्त दोनों कथनों का सारांश यह है कि छठे गुणस्थान में देवायु के बन्ध को प्रारम्भ कर उस उसी गुणस्थान में समाप्त किये विना ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले भीमों की अपेक्षा, प्रकृतियः और देवायु के बन्ध का प्रारम्भ और उसका विच्छेद इन दोनों को छठे गुणस्थान में करके सातवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीवों की अपेक्षा ५८ प्रकृतियाँ सात गुणस्थान में बन्धयोग्य हैं।
सातवें गणस्थान में देवायु के बन्ध की गणना का आशय यह है कि देवाय को प्रमत्त ही बांधता है, किन्तु अति विशुद्ध और स्थिर परिणाम वाला होने से अप्रमत्त जीव नहीं बांधता है। इसलिए जिस जीव ने छठे गुणस्थान में देवायु का बन्ध किया और उसी में उसका विच्छेद न करके अपने विशुद्ध परिणामों के कारण सातवे गुणस्थान में आ गया और इस गुणस्थान में देवायु का विच्छेद किया तो इस अपेक्षा से सातवें गुणस्थान में देवायु का बन्ध कहा जाता है और बन्धयोग्य ५६ प्रकृतियां मानी जाती हैं। लेकिन सातव गुणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ नहीं होता है।
सातवें गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृतियों का कथन करने के बाद अब आठवें अपूर्वकरण, नौवें अनिवृत्तिकरण और दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या और उनके नाम तीन गाथाओं द्वारा बतलाते हैं