Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मप्रन्थ का बन्ध चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । क्योंकि काय के बन्ध के लिए यह सामान्य नियम है कि जितने गुणस्थानों में जिम कपाय का उदय हो सकता है, उतने गुणस्थानों तक उस कषाय का बन्ध होता है।
पांचव देशविरत गुणस्थानवर्ती जीव देशसंयम का पालन करने वाला होता है । अर्थात् एकदेश संयम का पालन करने वाले को देशविरत कहते हैं । देशसंयम को रोकने वाली अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। अतः जब तक उसका उदय रहेगा, तब तक देशसंयम ग्रहण नहीं हो सकने मे जीव को पाँचबर्वा गुणस्थान प्राप्त नहीं होगा।
इस प्रकार चौथे गुणस्थान की बन्धयोग्य ७५ प्रकृतियों में बजऋषभनाराचसंहनन से लेकर औदारिकअंगोपांग पयंन्त दस प्रकृतियों का चौथे गुणस्थान के अन्त में विच्छेद हो जाने सं शेष ६७ प्रकृतियाँ का बन्ध पाँचवें गुणस्थान में होना है।
पांचवें गुणस्थान में बन्धयोग्य उक्त ६७ प्रकृतियों में से प्रत्याख्यावरणचतुष्क प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों का उदय पाँच गुणस्थान तक ही होता है और उसके अन्तिम समय में बन्धविच्छेद हो जाने से प्रत्याभ्यानावरण क्रोध आदि उक्त कषायों को छोड़कर शेष ६३ प्रकृतियां छठे प्रमत्तविरत गुणस्थान में बन्धयोग्य हैं। अर्थात् प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि चार कषायों का बन्ध पाँचवें गुणस्थान के चरम ममय तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं होता है। क्योंकि उन कषायों का उदय रहे तो छठा गुणस्थान प्राप्त नहीं हो सकता है। इसलिए प्रत्याख्यानावरण
१. तुलना करो
देसे नदियकसाया णिय मेणिह बन्धवोच्छिण्णा।
-गो० कर्मकांड ६७