Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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वितीय कर्मग्रन्थ
में सड़सठ प्रकृतियों का बन्ध होता है और तीसरी कषाय - प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का विच्छेद पांचवें गुणस्थान के अन्त में होने से तिरेसठ प्रकृतियाँ छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में बन्धयोग्य हैं। छठे गुणस्थान का नाम और बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या बताने के लिए आगे की गाथा से 'तेवछिपमत्ते' पद लेना चाहिए ।)
विशेषार्थ--गाथा में चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान की बन्धयोग्य और बन्धविच्छेद होने वाली प्रकृतियों के नामों का संकेत किया है।
सर्वप्रथम चौथे गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या आदि बतलाते हैं :
तीसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य ७४ प्रकृतियाँ हैं और इस गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का बन्धविच्छेद नहीं होता है । अतः चीये अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में ७४ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य होनी चाहिए थीं । लेकिन 'सम्ममेव तित्थबन्धो' सम्यग्दृष्टि के ही तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध होता है, यह सिद्धान्त होने मे चौथे गुणस्थान में तीर्थङ्करनाम बाधा जा सकता है तथा इसी प्रकार सम्मामि छादिट्ठी उयबन्धं पि न करेइ त्ति' के सिद्धान्तानुसार तीसरे गुणस्थान में जो मनुष्यायु और देवायु का भी बन्ध नहीं होता था, उन दोनों आयुओं का चौथे गुणस्थान में बन्ध हो सकता है।
इस प्रकार तीर्थकरनामकर्म एवं मनुष्यायु, देवायु इन तीन प्रकृतियों के साथ चौथे गुणस्थान में तीसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य
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१. नरकायु और तिर्यंचायु का बन्धविच्छेद पहले और दूमरे गुणस्थान में हो
बाने से मनुष्यायु और देवायु ये दो प्रकृतियाँ बन्धयोग्य रहती हैं ।