Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
णाओं को कर्मरूप से परिणत कर जीव द्वारा ग्रहण करने को अभिनव-नवीन कर्मग्रहण कहते हैं और इस नवीन कर्मग्रहण का नाम बन्ध है।
बन्ध हो जाने के बाद के सम्बन्ध को बन्ध नहीं कहा जाता है। क्योंकि उसका सत्ता में समावेश हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा के साथ बँधे हुए कर्म जब परिणाम-विशेष से एक स्वभाव का परित्याग कर दूसरे स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं, तब उस स्वभावान्तर-प्राप्ति को संक्रमण समझना चाहिए, बन्ध नहीं। इसी अभिप्राय से कर्मनहण मात्र को बन्ध न कहकर गाथा में अभिनव कर्मग्रहण को बन्ध का लक्षण बताया है । अर्थात् बन्ध के लक्षण में दिये गये 'अभिनव' विशेषण का यह शाम है कि नदी में शोको नन्द कहते हैं। किन्तु सत्तारूप में विद्यमान और स्वभावान्तर में संक्रमित कर्मों को बन्ध नहीं कहते हैं।
जीव के ज्ञान-दर्शनादि स्वाभाविक गुणों को आवरण करने की शक्ति का हो जाना यही कर्मपुद्गलों का कर्मरूप बनना कहलाता है । कर्मयोग्य पुद्गलों का कर्मरूप से परिणमन मिथ्यात्वादि हेतुओं से
HTTE होता है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये जीव के वैभाविक (विकृत) स्वरूप हैं, और इससे वे कार्मणपुद्गलों को कर्मरूप बनने में निमित्त होते हैं।
मिथ्यात्वादि जिन वैभाविक भावों से कार्मणपुद्गल कर्मरूप हो जाते हैं, उन वैभाविक भावों को भायकर्म और कर्मरूप परिणाम को प्राप्त हुए पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहते हैं। इन दोनों में परस्पराश्रय सम्बन्ध है । पहले ग्रहण किये हुए द्रव्यकर्मों के अनुसार भावकर्म और
१. सत्ता कम्मागठिई बंधाइ सर अत्तलामाणं ।