Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ
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उक्त नरकत्रिक आदि संज्ञाओं द्वारा बताई गई प्रकृतियों के साथ पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्त में बन्धविछिन्न होने वाली सोलह प्रकृतियों के नाम ये हैं---
(१) नरकगति,
(३) नरकायु (५) द्वीन्द्रियजाति, (७) चतुरिन्द्रियजाति, (e) सूक्ष्मनाम,
(११) साधारणनाम,
(१३) आतपनाम (१५) नपुंसक वेद,
(२) नरकानुपूर्वी, (४) एकेन्द्रियजाति, (६) श्रीन्द्रियजाति
(८) स्थावरनाम,
(१०) अपर्याप्तनाम,
(१२) इंडसंस्थान, (१४) सेवार्त संहनन, (१६) मिथ्यात्वमोहनीय ।
गुणस्थानों में कर्मबन्ध के कारणों के बारे में यह समझ लेना चाहिए कि कर्मबन्ध के जो मिथ्यात्वादि कारण बताये गये हैं, उनमें से जिस-जिस गुणस्थान तक जिनका उदय रहता है तो उनके निमित्त से बँधने वाली कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी उस गुणस्थान तक होता रहता है ।
मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का उदय पहले - मिध्यात्व गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है, दूसरे गुणस्थान में नहीं । अतएव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से अत्यन्त अशुभ रूप और प्रायः नारक जीवों, एकेन्द्रिय जीवों तथा विकलेन्द्रिय जीवों के योग्य नरकत्रिक मे लेकर मिथ्यात्वमोहनीय पर्यन्त गाथा में दिखाई गई सोलह
१. तुलना कीजिए——
मिच्छत्त
झुंड का सपत्ते यक्खावरादावं ।
मुहुमतिय वियलिदिय निरयदुरियाजगं मिथ्ये ॥ - गो० कर्मकाण्ड ६५