Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
द्वितीय कर्मग्रन्थ
जाने पर नामकर्म के ६७ भेद बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या में गिनाये गये हैं।
सामान्य से बन्धयोग्य पूर्वोक्त १२० कर्मप्रकृतियों में से तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक-आहारकशरीर और आहारक-अंगोपांग ---इन तीन कर्मप्रकृतियों का मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों के बन्ध नहीं होता है । अर्थात् ये तीन कर्मप्रकृतियाँ मिथ्यात्व गुणस्थान में अबन्ध योग्य हैं। इसका कारण यह है कि तीर्थकर नामकर्म का बन्ध सम्यक्त्व से और आहारकटिक का बन्ध अप्रमत्तसंयम से होता है।' परन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जीवों को न तो सम्यक्त्व होना सम्भव है और न अप्रमत्तसंयम होना सम्भव है। क्योंकि चौथे गुणस्थानअविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान --में पहले सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता और सातवें गुणस्थान- अप्रमत्तसंयत 'गुगस्थान-से पहले अप्रमत्त संयम भी नहीं होता है । अतः मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-इन बन्ध के कारणों के विद्यमान रहने से उक्त तीन प्रकृतियों के बिना पोष ११७ कर्मप्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध कर सकते हैं। अतएव मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ११७ और अबन्ध योग्य ३ प्रकृतियाँ हैं । ___अब आगे की गाथा में मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धविच्छेद योग्य १. देहे अविणामायी बन्धणसंघाद इदि अबन्धुदया।
वष्णचउक्केऽभिण्णे गहिदे चत्तारि बन्धुदये ॥ -गो० कर्मकाण्ड ३४ २. अवन्ध-उस गुणस्थान में वह कर्म न बँधे, किन्तु आगे के गुणस्थान में
उस कर्म का बन्ध हो, उसे अबन्ध कहते हैं। ३. सम्मेव तित्थवन्धो आहारदुर्ग पमादरहिदेसु। -गो० कर्मकाण्ड ६२ ४. बन्धविच्छेर-आगे के किसी भी गुणस्थान में बन्ध नहीं होने को बन्ध
विच्होद कहते हैं। छेव, क्षय, अन्त, भेद आदि समानार्थक शब्द हैं।