Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
-२+५ भेदों के मिलने से १२० कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोण्य मानी गई हैं।' ___ यद्यपि नामकर्म की विस्तार से ६३ या १०३ प्रकृतियां होती है । लेकिन यहां बन्धयोग्य प्रकृतियों में ६७ प्रकृतियाँ बताने का कारण यह है कि शरीर नामकर्म में बन्धन और संघातन ये दोनों अविनाभाषी हैं । अर्थात् शरीर के बिना ये दोनों हो नहीं सकते हैं । अतः बन्ध या उदयावस्था में शरीर नामकर्म से बन्धन और संघातन नामकर्म जुदे नहीं गिने जाते और शरीर नामप्रकृति में समाविष्ट हो जाने से तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन चार भेदों में भी अभेद विवक्षा से इनके बीस' भेद शामिल होने से बन्ध और उदय अवस्था में चार भेद लिये १. पंच णव दोण्णि छन्नीसमवि य चरो कमेण सत्तछी । वोपिण य पंच प भणिया एदाओ मन्धपयडीओ ।।
-गो० कर्मकाण ३५ अभेदविषक्षा से उक्त १२० कर्मप्रकृतियाँ गन्धयोग्य है । लेकिन भेदविवक्षा (भेद से कहने की इच्छा) से १४६ कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोग्म होगी । क्योंकि दर्शन मोह की सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यात्व और मिथ्यात्व-इन तीन भेदों में से मुल मिथ्यात्व प्रकृति ही बन्धयोग्य मानी जाती है। इसका कारण यह है कि बंधी हुई मिथ्यात्व प्रकृति को ही जीव अपने परिणामों द्वारा अशुद्ध, अर्धशुद्ध और विशुद्ध-इन तीन मागों में विमाजित करता है। जिससे मिथ्यात्व के ही तीन भेद हो जाते हैं। उनमें से विशुद्ध कर्मपूगलों को सम्यक्त्वमोहनीय और अर्घ शुद्ध कर्मपुदगलों को सम्पमिथ्यास्त्रमोहनीय कहते हैं। इसलिए मोहनीयकर्म के सम्यक्स्व और सम्यमिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों को बन्धयोग्य प्रकृतियों में ग्रहण न करने से १४६ प्रकृतियां भेदविवक्षा से बन्न योग्य मानी जाती है ।
प्रथम फर्मग्रन्थ में सामान्य से अन्ध, उदय आदि योग्य आठों को की प्रकृतियों के नाम बताये हैं। अत: यहाँ पुनः नाम नहीं दिये गये हैं।