Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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वितीय कर्मग्रन्थ
५१ भावकर्म के अनुसार फिर नवीन कर्मों का बन्ध होता रहता है। इस प्रकार द्रव्यकर्म से भाबकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म का बन्ध, ऐसी कार्यकारणभाव की अनादि परम्परा चली आ रही है।
किसी खास गुणस्थान और किसी खास जीव की विवक्षा किये बिना बन्धयोग्य कर्मप्रकृतियाँ १२० मानी जाती हैं। इसलिए १२० कर्मप्रकृतियों के बन्ध को सामान्यबन्ध या ओघबन्ध कहते हैं ।
यद्यपि कोई एक जीव किसी भी अवस्था में एक समय में कर्मपुद्गलों को १२० रूप में परिणमित नहीं कर सकता है । अर्थात १२० कर्मप्रकृतियों को नहीं बांध सकता है। पर बने नोच एक समय में १२० कर्मप्रकृतियों को बाँध सकते हैं। इसी तरह एक जीव भी जुदीजुदी अवस्थाओं में पृथक्-पृथक समय सब मिलाकर १२० कर्मप्रकृतियों को बाँध सकता है । क्योंकि जीव के मिथ्यात्वादि परिणामों के अनुसार कार्मणपुद्गल १२० प्रकार में परिणत हो सकते हैं । इसी से १२० कमप्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी जाती हैं ।
बन्धयोग्य १२० कर्मप्रकृतियों के मूल कर्मों के नाम और उनकी उत्तरप्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है
(१) ज्ञानावरण के ५ भेद (२) दर्शनावरण के ह भेद (३) वेदनीय के २ भेद (४) मोहनीय के २६ भेद (५) आय के भेद (६) नाम के ६७ भेद (७) गोत्र के भेद
(E) अन्तराय के ५ भेद इन सब ज्ञानावरणादि कमों के क्रमशः ५.18+२+२६+४+r