Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
आगे-आगे की अवस्थाओं में परिणामों की विशुद्धि अधिक-अधिक होने से कर्मनिर्जरा असंख्यातगणी बढ़ती जाती है और इस प्रकार बढ़तेबढ़ते अन्त में सर्वज्ञ अवस्था में निर्जरा का प्रमाण सबसे अधिक हो जाता है। ___कर्मनिर्जरा के प्रस्तुत तरतमभाव में सबसे कम निर्जरा सम्यग्दृष्टि को और सबसे अधिक सर्वज्ञ को होती है। कर्मनिर्जरा के बढ़ते क्रम की अवस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं__सम्यग्दृष्टि', श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धीवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, मोहोपशमक, उपशान्तमोह, क्षफ्क, क्षीणमोह और जिन । अनुक्रम से ये अवस्थाएं असंख्येयगुण निर्जरा वाली हैं। लेकिन पुर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर समय कम लगता है, अर्थात् सम्यग्दृष्टि को कर्मनिर्जरा में जितना समय लगता है, उसकी अपेक्षा श्रावक को कर्मनिर्जरा में संख्यातगुण कम लगता है। इसी प्रकार विरत आदि में आगे-आगे के लिए समझना चाहिए ।
उक्त चौदह गुणस्थानों में से १, ४, ५, ६, १३ ये पाँच गुणस्थान लोक में शाश्वत हैं, अर्थात् सदा रहते हैं, और शेष नौ गुणस्थान अशाश्वत हैं। परभव में जाते समय जीव का पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान रहते हैं । ३, १२, १३ ये तीन गुणस्थान अमर हैं, १. (क) सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहलपकोपशमकोपशान्त-- मोहलपकक्षीणमोहजिन्नाः क्रमशोऽमस्येय गुणनिर्जराः ।
. तत्त्वायसूत्र ६.४७ सम्मत्तुप्पसोये सावयविरदे अणंतकम्मंसे । दसण मोहल्लवगे कसायउयसामगे उपसंते ।। खबंग य खीणमोहे जिणेसु दवा असंवगुणिदकमा। तम्घिवरीया काला संखेज गुणक्कमा होति ॥
-गोम्मटसार, भीषकान्ड, ६६-६७