Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
( २६ )
है। इसी कारण आत्मा के विकास की यह क्रमगत अवस्थाएं - गुणस्थान मोहशक्ति की उत्कटता - मन्दता और अभाव पर आधारित हैं ।
मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं- दर्शनमोह एवं चारित्रमोह । इनमें से प्रथम शक्ति आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप पररूप का निर्णय, विवेक नहीं होने देती है । दूसरी शक्ति आत्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति नहीं करने देती है । व्यवहार में भी यही देखा जाता है कि वस्तु का यथार्थ दर्शन - बोध होने पर उस वस्तु को पाने या श्यामने की चेष्टा की जाती है। आध्यात्मिक विकासगामी आत्मा के लिए भी यही दो मुख्य कार्य हैं - स्वरूप-दर्शन और तदनुसार प्रवृत्ति, यानी स्वरूप में स्थित होना । इन दोनों शक्तियों में से स्वरूप-बोध न होने देने वाली शक्ति को दर्शनमोह और स्वरूप में स्थित न होने देने वाली शक्ति को चारित्रमोह कहते हैं। इनमें दर्शनमोहरूप प्रथम शक्ति जब तक प्रबल हो तब तक दूसरी चारित्रमोहरूप शक्ति कभी निर्बल नहीं हो सकती है। प्रथम शक्ति के मन्द मन्दतम होने के साथ ही दूसरी शक्ति भी तदनुरूप होने लगती है । स्वरूपबोध होने पर स्वरूप लाभ प्राप्ति का मार्ग सुगम हो जाता है ।
आत्मा की अधिकतम आवृत अवस्था प्रथम गुणस्थान है। जिसे मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। इसमें मोह की दोनों शक्तियों का प्रबलतम प्रभाव होने के कारण आत्मा आध्यात्मिक स्थिति से सर्वथा निम्न दशा में रहती है। फिर भी उस शक्ति का अनन्तत्र भाग उद्घाटित रहता है। इस भूमिका में आत्मा भौतिक वैभव का उत्कर्ष कितना भी कर ले, लेकिन स्वरूप-बोध की दृष्टि से प्रायः शून्य रहती है । लेकिन विकास करता तो आत्मा का स्वभाव है, अतएव जानते -अनजानते जब मोह का आवरण कम होने लगता है तब वह विकास की ओर अग्रसर हो जाती है और तीव्रतम राग-द्वेष को मन्द करती हुई मोह की