Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव धर्मदत्त की अपेक्षा अमित्रपना-ये दोनों धर्म एक ही काल में रहते हैं और उनमें कोई विरोध नहीं है। वैसे ही सर्वज्ञप्रणीत पदार्थ के स्वरूप के श्रद्धान की अपेक्षा समीचीनता और सर्वज्ञाभास कथित अतत्त्व श्रद्धान की अपेक्षा मिथ्यापना ये दोनों ही धर्म एक काल और एक आत्मा में घटित हो सकते हैं। इसमें कोई भी विरोधादि दोष नहीं है।
मिश्र गुणस्थानवर्ती (सम्यग्मिथ्यादृष्टि) जीव परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध नहीं कर सकता है' और मरण भी नहीं होता है । यदि इस मुगाथा : गीन सरण करता है तो सम्यक्त्व या मिथ्यात्वरूप दोनों परिणामों में से किसी एक को प्राप्त करके ही मर सकता है। अर्थात् इस गुणस्थान को प्राप्त करने से पहले सम्यक्त्व या मिथ्यात्व रूप परिणामों में से जिस जाति के परिणामकाल में परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध किया हो तो उसी तरह के परिणाम होने पर उसका मरण होता है। इस गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं हो सकता है । इसके अतिरिक्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संयम (सकल संयम और एकदेशसंयम) को ग्रहण नहीं कर सकता है ।
मिथ्यात्वमोहनीय के अद्ध विशुद्ध पुंज (सम्यगमिथ्यात्व मिश्र) का उदय अन्तर्मुहुर्तपर्यन्त रहता है। इसके अनन्तर शुद्ध या अशुद्ध किसी एक पुज का उदय हो जाता है। अतएव तीसरे मुणस्थान की कालस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
१. सम्मामिच्छादिट्टी आउ बंधपि न करेइ त्ति । २. मूल दारीर को बिना छोड़े ही, आरमा के प्रदेशों को बाहर निकलने को
समुद्घात कहते हैं। उसके सात भेद हैं-वेदना, कवाय, वैक्रियक, मारणान्तिक, तेजस, आहार और केवल । मरण से पूर्व समय में होने बाले समुद्रात को मारणान्तिक समुद्घात कहते है।