Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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फर्मस्तव
(५) अपूर्व स्थितिबन्ध - पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्पस्थिति के कर्मो का बांधना अपूर्व स्थितिबन्ध कहलाता है ।
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यद्यपि स्थितिघात आदि ये पाँचों बातें पहले के गुणस्थानों में भी होती हैं, तथापि आठवें गुणस्थान में ये अपूर्व ही होती हैं। क्योंकि पूर्वगुणस्थानों में अध्यवसायों की जितनी शुद्धि होती है, उसकी अपेक्षा आठवे गुणस्थान में उनकी वृद्धि अधिक होती है। पहले के गुणस्थानों में बहुत कम स्थिति का और अत्यल्प रस का घात होता है परन्तु आठवं गुणस्थान में अधिक स्थिति और अधिक रस का घात होता है। इसी प्रकार पहले के गुणस्थानों में गुणश्रेणि की कालमर्यादा अधिक होती है तथा जिन दलिकों की गुणश्रेणि ( रचना या स्थापना ) की जाती है, वे दलिक अल्प होते हैं और आठवें गुणस्थान में गुणश्रेणियोग्य दलिक तो बहुत अधिक होते हैं, किन्तु कालमान बहुत कम होता है। पहले के गुणस्थानों की अपेक्षा गुणसंक्रमण बहुत कर्मों का होता है। अतएव वह अपूर्व होता है और आठवें गुणस्थान में इतनी अल्पस्थिति के कर्म बाँधे जाते हैं कि जितनी अल्पस्थिति के कर्म पहले के गुणस्थानों में कदापि नहीं बँधते हैं।
इस प्रकार इस गुणस्थान में स्थितिघात आदि पदार्थों का अपूर्व विधान होने से इस गुणस्थान को अपूर्वकरण कहते हैं ।
इस आठवं गुणस्थान में आत्मा की विशिष्ट योगीरूप अवस्था शुरू होती है. अर्थात् औपशमिक या क्षायिक भावरूप विशिष्ट फल पैदा करने के लिए चारित्रमोहनीयकर्म का उपशमन या क्षय करना पड़ता है और वह करने के लिए भी तीन करण करने पड़ते हैं यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । उनमें यथाप्रवृत्तिकरणरूप सातव, अपूर्वकरणरूप आठवाँ और अनिवृत्तिकरणरूप नौवाँ गुणस्थान है।
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