Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मनि अवस्थामार रहते हैं । पात व पुद्गल
द्वितीय कर्मग्रन्य
४३ (१४) अयोगिकेवली गुणस्थान-जो केवली भगवान योगों में रहित हैं, वे अयोगिकेवली कहलाते हैं, अर्थात् जब सयोगिकेवली मन, वचन और काया के योगों का निरोध कर योगरहित होकर शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अयोगिकेवली कहलाते हैं और उनके स्वरूप विशेष को अयोगिकेवली गुणस्थान कहते हैं। ___ इस गुणस्थान में मोक्ष प्राप्त करने की प्रक्रिया आरम्भ होती है, अर्थात् यह गुणस्थान मोक्ष का प्रवेश द्वार है । तीनों योगों का निरोध करने से अयोनि अवस्था प्रा होती है। केवल भगवन सोगि अवस्था में अपनी आयु के अनुसार रहते हैं । परन्तु जिन केवली भगवान के चार अघाती कर्मों में से आयुकर्म की स्थिति व पुद्गल परमाणुओं (प्रदेशों) की अपेक्षा वेदनीय, नाम और गोन इन तीन कर्मों की स्थिति और पुद्गल परमाणु अधिक होते हैं, वे समुद्घात' करते हैं और इसके द्वारा वे आयुकर्म की स्थिति एवं पुद्गल परमाणुओं के बराबर वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति व पुद्गल परमाणुओं को कर लेते हैं। १, यह समुद्घात केवली भगवान द्वारा होने में कंवलीसमुद्घात कहलाता है।
इस समुद्घात में आठ समय लगते है। पहले समय में केवली के आत्मप्रदेश दण्ड के आकार के बनते हैं। यह दण्ड मोटा तो अपने शरीर जितना एवं लम्बा लोकपर्यन्त चौदह राजू का होता है । दूसरे समय में यह दण्ड पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण लोकपर्यन्त फैलकर कपाट का रूप लेता है 1 लीसरे समय में वह कपाट उसर-दक्षिण या पूर्व-पश्चिम में फंसकर मधानी के नुल्य बनता है। ऐसा होने से लोक का अधिकांश भाग केवली के आरमप्रदेशों से व्याप्त हो जाता है, फिर भी मथानी की आकृति होने से आकाश के कुछ अन्तराल प्रदेश खाली रह जाते हैं, अतः चौथे समय में प्रतरस्थिति द्वारा उन खाली रहे हुए सब आकाश-प्रदेशों पर केवली के आरमप्रदेश पहुंच जाते है । उस समय सम्पूर्ण