Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं और योग (आत्म-वीय, शक्ति, उत्साह, पराक्रम) से सहित हैं, उन्हें सयोगिकेवली कहते हैं और उनके स्वरूपविशेष को सयोगिकेवली गुणस्थान कहते हैं । सयोगिकेवली को घातीकर्मों से रहित होने के कारण जिन, जिनेन्द्र, जिनेश्वर भी कहा जाता है।"
मन, वचन और काय इन तीन साधनों से योग की प्रवृत्ति होती है । अतएव योग के भी अपने साधन के अनुसार तीन भेद होते हैं(१) मनोयोग, (२) वचनयोग, (३) काययोग । केवली भगवान मनोयोग का उपयोग किसी को मन से उत्तर देने में करते हैं । जिस समय कोई मन पर्थयज्ञानी अथवा अनुत्तर विभागवासी देश मनधान से शब्द द्वारा न पूछकर मन द्वारा प्रश्न आदि पूछता है, तब केवलज्ञानी उसके प्रश्न का उत्तर मन से ही देते हैं। प्रश्नकर्ता मनःपर्ययज्ञानी अथवा अनुत्तरविमानवासी देव केवली भगवान द्वारा उत्तर देने के लिए संगठित किये गये मनोद्रव्यों को अपने मनःपर्ययज्ञान अथवा अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष कर लेता है और तदनुसार मनोद्रव्यों की रचना के आधार से अपने प्रश्न का उत्तर अनुमान में जान लेता है। उपदेश देने के लिए केवली भगवान वचनयोग का तथा हलनचलन आदि क्रियाओं में काययोग का उपयोग करते हैं ।
सयोगिकेवली में यदि कोई तीर्थकर हो तो वे तीर्थ की स्थापना करते हैं और देशना देकर तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं ।
इस गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम करोड़ पूर्व वर्ष तक का है। १. असहाय शाणसण सहिमो इदि केवली हु जोगेण । जुतो सि सजोगिजियो अणाइणिणारिसे उत्तो ।।
-गोम्मटसार, पीवकाश, ६४