Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
यद्यपि मोहनीय आदि चार घातीकर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने से वीतरागत्व और सर्वज्ञत्व प्रकट होते हैं, फिर भी उस समय वेदनीय आदि चार अघातीकर्म शेष रहते हैं, जिससे मोक्ष नहीं होता है। अतः शेष रहे हुए इन कर्मों का क्षय भी आवश्यक है । जब इन कर्मों का भी क्षय होता है, तभी सम्पूर्ण कर्मों का अभाव होकर जन्ममरण का चक्कर बन्द पड़ जाता है और यही मोक्ष है। लेकिन अघातीकर्मों में आयुकर्म की स्थिति कम हो और शेष तीन-वेदनीय, नाम और गोत्र - अघातीकर्मों की स्थिति आदि अधिक हो तो उनका आयुकर्म के साथ ही क्षय होना संभव नहीं होता है । इसीलिए आयुकर्म की स्थिति आदि के साथ ही उन कर्मों की स्थिति आदि के क्षय
लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर केवली के आत्मप्रदेश होते हैं एवं उनकी आस्मा समस्त लोक में व्याप्त हो जाती है, क्योंकि एक जीव के असंख्य प्रदेश और लोकाकाश के असंख्य प्रदेश बराबर हैं।
इस क्रिया के बाद वापस आत्मप्रदेशों का संकोच होने लगता है। जैसे पांचवें समय के अन्तराल प्रदेश खाली होकर पुन: मथानी बन जाती है, छठे समय कपाट बन जाता है, सातवें समय दण्ड बन जाता है, एवं आठवें समय में केवली भगवान की आत्मा अपने मूल रूप में आ जाती है।
___ यह समुदधात की क्रिया स्वाभाविक होती है। इसमें काल आठ समय मात्र लगता है। इस समुद्घात की क्रिया से आयुष्य कर्म की स्थिति से अधिक स्थिति वाले अपाती कमों की निर्जरा हो जाती है। फिर बे केवली अन्तर्मुहूर्त के अन्दर मोक्ष चले जाते हैं।
इस समुद्घात की क्रिया में मन, वचन के योगों की प्रवृत्ति नही होती, केवल कामयोग होता है । उसमें भी पहले-आठवें समय में औदारिक काययोग, दूसरे, छठे, सातवे समय में औदारिकमिश्र काययोग एवं तीसरे, चौथे, पांचवें समय में कार्मण काययोग होता है। केवलीसमुद्घात सामान्य फेवलियों के ही होता है। लेकिन तीर्थकरों के नहीं होता है ।