Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव तो आठवें गुणस्थान में पहुंचकर उपशम, क्षपक श्रेणी ले लेते हैं या पुनः छठे गुणस्थान में आ जाते हैं ।
(८) निवृत्तिबादर गुणस्थान -- इसको अपूर्वकरण गुणस्थान भी कहते हैं । अध्यवसाय, परिणाम, निवृत्ति - ये तीनों समानार्थवाचक माब्द हैं, जिसमें अप्रमत्त आत्मा की अनन्तानबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण - इन तीन चौक रूपी बादर कषाय की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था को निवृत्तिबादर गुणस्थान कहते है। ____ अन्तर्मुहूर्त में छठा और अन्तर्मुहूर्त में सातवाँ गुणस्थान होता रहता है। परन्तु इस प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के स्पर्श से जो संयत (मुनि) विशेष प्रकार को विशुद्धि प्राप्त करके उपशम या क्षपक श्रेणि मांडने वाला होता है, वह अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में आता है। दोनों श्रेणियों का प्रारम्भ यद्यपि नौवें गुणस्थान से होता है, किन्तु उनकी आधारशिला इस गुणस्थान में रखी जाती है। आठवाँ गुणस्थान दोनों प्रकार की श्रेणियों की आधारशिला बनाने के लिए है
और नौवें गुणस्थान में श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं। अर्थात् आठवें गुणस्थान में उपशमन या क्षपण को योग्यता मात्र होती है। आठवें गुणस्थान के समय में जीव इन पाँच वस्तुओं का विधान करता है
(१) स्थितिघात, (२) रसधाल, (३) गुणणि, (४) गुणसंक्रमण और (५) अपूर्व स्थितिबन्ध ।।
(१) स्थितिघाल .. कर्मों की बड़ी स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटा देना अर्थात् जो कर्मलिक आगे उदय में आने वाले हैं, उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने उदय के नियत समयों में हटा देना स्थितिघात कहलाता है।
(२) रसघात-बंधे हुए शानावरणादि कर्मों के फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण के द्वारा मन्द कर देना रसघात कहलाता है।