Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
कर्मस्तव
-
आदि के चार गुणस्थान चारों गति-देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकको जीवों के हो सकते हैं।
इस गुणस्थान का काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि पर्यन्त है।
(६) प्रमससंयत गुणस्थान-जो जीव पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं, वे संयत (मुनि) हैं। लेकिन संयत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते हैं, तब तक वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं और उनके स्वरूप-विशेष को प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थानवर्ती जीव सावध कर्मों का यहां तक त्याग करते हैं कि पूर्वोक्त मंबासानुमति भी नहीं सेवते हैं। ___ यद्यपि सकलसंयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव होने से इस गुणस्थान में पूर्ण संयम तो हो चुकता है, किन्तु संज्वलन आदि कषायों के उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाले प्रमाद के रहने से इसे प्रमत्तसंयत कहते हैं।
प्रमाद के पन्द्रह प्रकार होते हैंचार विकथा (स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, चौरकथा) । चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ)।
पाँच इन्द्रियों स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र) के विषयों में आसक्ति।
निद्रा और स्नेह ।
इस गुणस्थान में देशविरति की अपेक्षा गुणों- विशुद्धि का प्रकर्ष, १. विकता तहा कसाया इन्दिमणिद्दा तहेव पणयो य । चद् चद् पणमेगेगं होंति पमादा हु पण्ण रस ॥
-गोम्मटसार जीवकान्ड ३४