Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
T
२५
द्वितीय कर्मग्रन्थ
देशविरत को श्रावक भी कहते हैं। इनका स्वरूप विशेष देशविरत गुणस्थान है ।
इस गुणस्थानवर्ती जीव सर्वज्ञ वीतराग के कथन में श्रद्धा रखता हुआ तसहिंसा से विरत होता ही है, किन्तु बिना प्रयोजन के स्थावर हिंसा को भी नहीं करता है। अर्थात् सहिसा के त्याग की अपेक्षा विरत और स्थावर हिंसा की अपेक्षा अविरत होने से इस जीव को विरताविरत भी कहते हैं ।
इस गुणस्थान में रहने वाले कई श्रावक एक व्रत लेते हैं, कई दो श्रत लेते हैं एवं कई तीन, चार, पाँच यावत् बारह व्रत लेते हैं तथा श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को धारण कर आत्मा का कल्याण करते हैं । इस प्रकार अधिक-से-अधिक व्रतों को पालन करने वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं, जो पापकर्मों में अनुमति के सिवाय और किसी प्रकार म भाग नहीं लेते हैं ।
अनुमति के तीन प्रकार हैं- (१) प्रतिमेवानुमति, (२) प्रतिश्रवणानुमति, (३) संवासानुमति। अपने या दूसरे के किये हुए भोजन आदि का उपयोग करना प्रतिसेवानुमति है । पुत्र आदि किसी सम्बन्धी के द्वारा किये गये पापकर्मों को केवल सुनना और सुनकर भी उन कर्मों के करने से उनको नहीं रोकना प्रतिश्रवणानुमति है । पुत्र आदि अपने सम्बन्धियों के पापकार्य में प्रवृत्त होने पर उनके ऊपर सिर्फ ममता रखना, अर्थात् न तो पापकार्य को सुनना और सुनकर भी उसकी प्रशंसा न करना संवासानुमति है । जो श्रावक, पाप-जनक आरम्भों में किसी प्रकार से भी योग नहीं देता, केवल संवासानुमति को सेक्ता है, वह अन्य सब श्रावकों में श्रेष्ठ है ।
देशविरत गुणस्थान मनुष्य और तिथंच जीवों के ही होता है ।