Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ
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(४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान--हिंसादि सावध व्यापारों को छोड़ देने, अर्थात् पापजनक प्रयलों से अलग हो जाने को विरति कहते हैं।' चारित्र, ब्रत विरति के ही नाम हैं। जो सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार के प्रत को धारण नहीं कर सकता, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि हैं और उसके स्वरूपविशेष को अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान काहते है।
इस मुणस्थानवर्ती जीव को अविरतसम्यग्दृष्टि कहने और सम्यग्दर्शन के साथ संयम न होने का कारण एकदेश संयम के घातक अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय हैं।
सम्यग्दृष्टि जोव केवली द्वार। उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है । अज्ञानतावश यदि असद्भाव का भी श्रद्धान कर लेता है तो शास्त्रों द्वारा या गुरुओं के समझाये जाने पर असमीचीन श्रद्धान को छोड़कर समीचीन श्रद्धान करना प्रारम्भ कर देता है। यदि गुरु, आचार्य आदि द्वारा समझाये जाने पर भी असमीचीन श्रद्धान को न छोड़े तो मिथ्यादृष्टि कहलाता है। __ अविरत जीव सात प्रकार के होते हैं..--
(१) जो व्रतों को न जानते हैं, न स्वीकारते हैं और न पालते हैं, म साधारण लोग।
(२) जो बत्तों को जानते नहीं, स्वीकारत नहीं, किन्तु पालते हैं, गेसे अपने आप तप करने वाले बालतपस्वी ।
(३) जो व्रतों को जानते नहीं हैं, किन्तु स्वीकारत है और स्वीकार कर पालन नहीं करते हैं, ऐसे ढोले-पासत्थे साघ. जो संयम लेकर निभाते नहीं हैं। १. हिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो वितितम् । -तत्वामंसूत्र १