Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ ने चावल आदि अन्न न कभी देखा होता है और न सुना। इससे वे अदृष्ट और अत्रुत अन्न को देखकर उसके विषय में रुचि या घृणा नहीं करते: फिन्तु नास्थभा ही रही है। इसी प्रकार सम्बन्मिथ्यादृष्टि जीव भी सर्वज्ञप्ररूपित मार्ग पर प्रीति या अप्रीति न करके समभाव ही रहते है।
जिस प्रकार दही और गुड़ को परस्पर इस तरह से मिलाने पर कि फिर दोनों को पृथक-पृथक नहीं कर सकें, तब उसके प्रत्येक अंश का मिश्र रूप (कुछ खट्टा और कुछ मीठा-दोनों का मिला हुआ रूप) होता है। इसी प्रकार आत्मा के गुणों का घात करने वाली कर्मप्रकृतियों में से सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का कार्य विलक्षण प्रकार का होता है । उससे केवल सम्यक्त्वरूप या केवल मिघ्या त्वरूप परिणाम न होकर दोनों के मिले-जुले (मिश्र) परिणाम होते हैं । अर्थात् एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप परिणाम रहते हैं।' ___ शंका · मिश्ररूप परिणाम ही नहीं हो सकने से यह तीसरा गुणस्थान बन नहीं सकता। यदि विरुद्ध दो प्रकार के परिणाम एक ही आत्मा और एक ही काल में माने जायें तो शीत-उष्ण की तरह परस्पर सहानवस्थान लक्षण विरोध दोष आयेगा । यदि क्रम से दोनों परिणामों की उत्पत्ति मानी जाये तो मिश्ररूप तीसरा गुणस्थान नहीं बनता।
समाधान-उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि मित्रामिन न्याय से एक काल और एक ही आत्मा में मित्ररूप परिणाम हो सकते हैं। जैसे कि देवदत्त नामक व्यक्ति में यज्ञदत्त की अपेक्षा मित्रपना और
-- - -- - . १. दहि गुडभिव वा मिस्सं पहभावं व कारिदं सक्कं ।
एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छोत्ति गादब्यो ।' -गोम्मट गोषका २२