Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ
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पथमिक सम्यक्त्व के काल को उपशान्ताद्धा कहते हैं। उपशान्ताद्धा के पूर्व अर्थात् अन्तरकरण के समय में जीव विशुद्ध परिणाम से द्वितीय स्थितिगत (ओपशमिक सम्यक्त्व के बाद उदय में आने वाले) मिध्यात्व के तीन पुंज करता है। जिस प्रकार कोद्रवधान्य ( कोदों नामक धान्य) का एक भाग ओपधियों से साफ करने पर इतना शुद्ध हो जाता है कि खाने वाले को बिलकुल नशा नहीं आता, दूसरा भाग अर्द्ध शुद्ध और तीसरा भाग अशुद्ध रह जाता है, उसी प्रकार द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्वमोहनीय के तीन पुंजों में से एक पुंज इतना शुद्ध हो जाता है कि उसमें सम्यक्त्वघातकरस (सम्यक्त्व को नाश करने की शक्ति) नहीं रहता । दूसरा पुंज आधा शुद्ध और तीसरा पुंज अशुद्ध ही रह जाता है ।
औपशमिक सम्यक्त्व का समय पूर्ण होने पर जीव के परिणामानुसार उक्त तीन पुञ्जों में से कोई एक अवश्य उदय में आता है । परिणामों के शुद्ध रहने पर शुद्ध पुञ्ज उदय में आता है, उससे सम्यक्त्व का घात नहीं होता । उस समय प्रगट होने वाले सम्यक्त्व को क्षायोपशमिक सस्यवत्व कहते हैं। जीव के परिणाम अर्द्ध विशुद्ध रहने पर दूसरे पुंरंज का उदय होता है और जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है । परिणामों के अशुद्ध होने पर अशुद्ध पुंज का उदय होता है और उस समय जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।
अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशान्ताद्धा में जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर और पूर्णानन्द वाला होता है । जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिकाएँ शेष रहने पर किसी-किसी औपशमिक सम्यक्त्व वाले जीव के चढ़ते परिणामों में विघ्न पड़ जाता है, अर्थात् उसकी शान्ति भंग हो जाती है । उस समय अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने से जीव सम्यक्त्व परिणाम को छोड़कर मिध्यात्व की ओर झुक जाता है । जब