Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव आने वाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक अन्तर्मुहूर्त काल ऐसा हो जाता है कि जिसमें मिथ्यात्वमोहनीय का कोई कमलिक नहीं रहता। अतएव जिसका अबाधाकाल पूरा हो चुका है-ऐसे मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के दो विभाग हो जाते हैं । एक विभाग वह है, जो अनिवृत्तिकरण के चरम समयपर्यन्त उदय में रहता है और दूसरा वह, जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक अन्तर्मुहूर्त बीतने पर उदय में आता है। इनमें से पहले विभाग को मिथ्यात्व को प्रथम स्थिति और दूसरे को मिथ्या व की द्वितीय स्थिति कहते हैं । अन्तरकरणक्रिया के शुरू होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्त तक तो मिथ्यात्व का उदय रहता है, पीछे नहीं रहता है। क्योंकि उस समय जिन दलिकों के उदय की सम्भावना है, वे सब दलिक अन्तरकरण की क्रिया से आगे और पीछे उदय में आने योग्य कर दिये जाते हैं।
अनिवत्तिकरण काल के बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है। औपशमिक सम्यक्त्व के प्राप्त होते ही जीव को स्पष्ट एवं असंदिग्ध प्रतीति होने लगती है। क्योंकि उस समय मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का विपाक और प्रदेश दोनों प्रकार से उदय नहीं होता। इसलिए जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्व गुण व्यक्त होता है । मिथ्यात्वरूप महान् रोग हट जाने से जीव को ऐसा आनन्द आता है, जैसे किसी पुराने एवं भयंकर रोगी को स्वस्थ हो जाने पर। उस समय तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धा हो जाती है। औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है, क्योंकि इसके बाद मिथ्यात्व मोहनीय के पुद्गल, जिन्हें अन्तरकरण के समय अन्तर्मुहर्त के बाद उदय आने वाला बताया है, वे उदय में आ जाते हैं या क्षयोपशम रूप में परिणत कर दिये जाते हैं।