Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव
उत्तर-उत्तर के गुणस्थान में ज्ञान, दर्शन आदि गुणों की शुद्धि बढ़ती जाती है। परिणामतः आगे-आगे के गुणस्थानों में अशुभप्रकृतियों की अपेक्षा शुभप्रकृतियों का बन्ध होता है और क्रम क्रम से शुभप्रकतियों का भी बन्ध रुक जाने अन्त में जीवमान के लिए प्राप्त करने योग्य शुद्ध परम शुद्ध, प्रकाशमान आत्म रमणतारूप परमात्मपद प्राप्त हो जाता है ।
गुणस्थानों को व्यवस्था - जगत में अनन्त जीव हैं । उनमें प्रत्येक जीव एक समान दिखाई नहीं देता है । इन्द्रिय, वेद, ज्ञानशक्ति, उपयोगशक्ति, लक्षण आदि विभागों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से शास्त्र में जीवों के भेद बतलाये हैं और जगत में वैसा दिखता भी है । परन्तु आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से जो विभाग किये गये हैं, वे इन गुणस्थानों की व्यवस्था से बराबर व्यवस्थित रूप में समझ जा सकते हैं ।
सामान्यतया आध्यात्मिक दृष्टि से जगत में जीवों के दो प्रकार हैं - (१) मिथ्यात्वी - मिध्यादृष्टि, (२) सम्यक्त्वी सम्यग्दृष्टि । अर्थात् कितने ही जीव गाढ़ अज्ञान और विपरीत बुद्धि वाले और कितने ही ज्ञानी, विवेकशील प्रयोजनभूत लक्ष्य के मर्मज्ञ, आदर्श का अनुसरण कर जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं ।
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उक्त दोनों प्रकार के जीवों में अज्ञानी और विपरीत बुद्धि वाले जीवों को मिथ्यात्वी कहते हैं। ऐसे जीवों का बोध कराने के लिए पहला मिथ्यात्व - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है ।
सम्यक्त्वधारियों में भी तीन भेद हो जाते हैं - (१) सम्यक्त्व से गिरते समय स्वल्पसम्यक्त्व वाले ( २ ) अर्द्ध सम्यक्त्व और अर्द्धमिथ्यात्व वाले, (३) विशुद्धसम्यक्त्व वाले किन्तु चारिवरहित । उक्त स्थिति वालों में से स्वल्पसम्यवत्व वाले जीवों के लिए दूसरा