Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ (१३) अज्ञान मिथ्यात्व, (१४) अबिनय मिथ्यात्व, (१५) आशातना मिथ्यात्व।
पूर्वोक्त दस और इन पन्द्रह भेदों को मिलाने मे मिथ्यात्व के कुल पच्चीस भद हो जाते हैं और इन सबको संक्षेप में कहा जाये तो नंगिक मिथ्यात्व और परोपदेशपूर्वक मिथ्यात्व-ये दो भेद होंगे।
मिथ्यात्व गुणस्थान की जघन्य स्थिति अन्नमुहर्त और उत्कृष्ट देशोनअर्धपुद्गलपरावर्तन' है।
(२) सास्वादन गुणस्थान - जो औपमिक सम्यक्त्ती जीव अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है, किन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है, तब तक अर्थात् जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका पर्यन्त वह सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है और उस जीव के स्वरूपविशेष को सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं।
जिस प्रकार पर्वत से गिरने पर और भूमि पर पहुँचने के पहले मध्य का जो काल है, वह न पर्वत पर ठहरने का काल है और न भूमि पर ठहरने का है, किन्तु अनुभयकाल है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषायों के उदय होने से सम्यक्त्व परिणामों से छूटने और मिथ्यात्व परिणामों के प्राप्त न होने पर मध्य के अनुभय काल में जो परिणाम होते हैं, उनको सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। १. आहारक शरीर को छोड़कर शेष औदारिकादि सात प्रकार की स्पी
वर्गणाओं को ग्रहण करते हुए एक जीव द्वारा समस्त लोकाकाश के पुद्गलों का स्पर्श करना पुद्गलपरावर्तन कहलाता है। एक पुद्गलपरावर्तन पूरा होमे में अनन्त कालचक्र व्यतीत हो जाते हैं। उसका आधा हिस्सा अर्घपुद्गलपरावर्तन है और उस आधे हिस्से में भी एकदेश कम को देवाोनअर्धपुद्गल परावर्तन कहते हैं 1 (विशेष परिशिष्ट में देखिए ।)