Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
द्वितीय कर्मग्रन्थ
१३
है । जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी अच्छा मालूम नहीं होता, उसी प्रकार मिथ्यात्वी को यथार्थ धर्म भी अच्छा मालूम नहीं होता है ।"
मिथ्यात्वप्रकृति के उदय मे तत्वार्थ के विपरीत श्रद्धानरूप होने वाले मिथ्यात्व के ये पांच भेद होते हैं - १) एकान्त, (२) विपरीत, (3) fàmu, (8) dufaa, (2) sana 12
एकान्त मिथ्यात्व - अनेकधर्मात्मक पदार्थ को किसी एकधर्मात्मक मानना एकान्तमिथ्यात्व है। जैसे- “वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है. अथवा नित्य ही है।"
विपरीतमय्यात्व - धर्मादिक के स्वरूप को विपर्ययरूप मानना. विपरीत मिथ्यात्व है; जैसे- "हिंसा में स्वर्गादि की प्राप्ति होती है ।"
विनयमिध्यात्व - सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव, गुरु और उनके कहे हुए शास्त्रों में समान बुद्धि रखना, विनयमिध्यात्व है ।
संशयमिथ्यात्व - समीचीन और असमीचीन- दोनों प्रकार के पदार्थों में से किसी भी एक का निश्चय न होना, संशयमिथ्यात्व कहलाता है ।
अज्ञान मिथ्यात्व - जीवादि पदार्थों को यही हैं', 'इस प्रकार है' - इस तरह विशेष रूप मे न समझने को अज्ञानमिध्यात्व कहते हैं ।
—
17
१. मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीय दंसणी होदि । जय धम्मं रोचेदि हूँ महूरं खु रसं जहा जरिदो ॥
- गोम्मटसार जोवकाण्ड - १७
२. मिछोयेण मितमसद्दणं तु तच्च अत्यागं । एयंतं विवरीयं विषयं संसदिमणाणं ॥
- गोम्मटसार जीवकाण्य - १५
—