Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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द्वितीय कर्मग्रन्थ
दर्शनयुक्त स्वरूपरमणता आत्मा में प्रकट हो जाती है तो इसका कथन अयोगिकेवली नामक चौदहवं गुणस्थान द्वारा किया जाता है। इस दशा को प्राप्त करना जीव का परम लक्ष्य है और संसार का नाश कर सदा के लिए शाश्वत, निर्मल, सिद्ध, बुद्ध, चैतन्य रूप में रमण करता है।
गुणस्थानों को परिभाषा जीव के विकास की प्रारम्भिक सीढ़ी पहला मिथ्यात्व गुणस्थान है और उसकी पूर्णता अयोगिकेवली नामक चौदहवं गुणस्थान में होती है । अतः अब मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों का स्वरूप बतलाते हैं ।
(१) मिध्यात्व गणस्थान -मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा, प्रतिपत्ति) मिथ्या (उल्टी, विपरीत हो, उस मिथ्यादृष्टि कहते हैं। जैसे धतूरे के बीज को खाने वाला मनुष्य सफेद वस्तु को भी पीली देखता है, वैसे ही मिथ्यात्वी मनुष्य की दृष्टि भी विपरीत हो जाती है, अर्थात् कुदेव को देव, कुगुरु को गुरु और कुधर्म को धर्म समझता है । उसे आत्मा तथा अन्य, चैतन्य व जड़ का विवेकज्ञान ही नहीं होता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीव के स्वरूप-विशेष को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान भी कहते हैं ।
प्रश्न-विपरीत दृष्टि को यदि मिथ्यादृष्टि कहते हैं तो मिथ्यात्वी जीव के स्वरूप-विशेष को गुणस्थान कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर-यद्यपि मिथ्यात्वी की दृष्टि विपरीत है तो भी वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है। क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि को मनुष्य, पशु, पक्षी आदि रूप से जानता तथा मानता है। इसीलिए उसकी चेतना के स्वरूप-विशेष को गुणस्थान कहते हैं।
जिस प्रकार सघन बादलों का आवरण होने पर भी सूर्य की प्रभा