Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
कर्मस्तव
सर्वथा ढक नहीं जाती है, किन्तु कुछ-न-कुछ खुली रहती है, जिससे कि दिन-रात का विभाग किया जा सके। इसी प्रकार मिथ्यात्वमोहनीयकर्म का उदय होने पर भी जीव का दृष्टिगण सर्वथा ढक नहीं जाता है, किन्तु आशिक रूप में मिथ्यात्वी की दृष्टि भी यथार्थ होती है। इसके सिवाय निगोदिया जीव को भी आंशिक रूप से एक प्रकार का अव्यका स्पर्श मात्र उपयोग होता है। यदि यह न माना जाये तो निगोदिया जोव अजीव कहलायेगा।' इसीलिए मिथ्यात्व गुणस्थान माना जाता है।
प्रश्न -जब मिथ्यात्वी की दृष्टि को किसी अंश में यथार्थ होना मानते हैं तो उसे सम्यग्दृष्टि कहने और मानने में क्या बाधा है ?
उत्तर-यह ठीक है कि किसी अंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि यथार्थ होती है, लेकिन इतने मात्र से उसे सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि शास्त्र में कहा गया है कि द्वादशांग सूत्रोक्त एक अक्षर पर भी जो विश्वास नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि है; जैसे-जमाली । लेकिन सम्यक्त्वी जीव की यह विशेषता होती है कि उसे सर्वज्ञ के कयन पर अखण्ड विश्वास होता है और मिथ्यात्वी को नहीं होता है। इसीलिए मिथ्यादृष्टि को सम्यक्त्वी नहीं कहते हैं।
मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले मिथ्या परिणामों का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धा वाला हो जाता
१. सश्वजीवाणं पि य अक्सरस्स अणंतमोमागो निच्वं उग्घाटियो चिछछ । जइ
पुण सोवि भावरिज्जा तेणं जीवो अजीवसणं पाणिज्जा । –नन्धी ७५ २. पयमवि असद्दहतो सुप्तत्थं मिच्छदिओ। पयमस्वरपि इक जो न रोएइ सुत्तनिद्दिठं । सेस रोवतो विहु मिच्छदिछी जमालिन ।