Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार नहीं रहता है। जिसमे पांचवें गुणस्थान में चारित्रशक्ति का प्राथमिक विकास होता है । इनके अनन्तर पांच गुणस्थान के अन्त में प्रत्याख्यानावरण कषाय का वेग न रहने से चारित्रशक्ति का विकास और बढ़ता है, जिससे इन्द्रिविययों मे विरक्त होने पर जीव साधु (अनगार) बन जाता है। यह विकास की छठवी भूमिका है। इस भूमिका में चारित्र की विपक्षी संज्वलन कषाय के विद्यमान रहने से चारित्रपालन में विक्षेप तो पड़ता रहता है, किन्तु चारित्रशक्ति का विकास दबता नहीं है । शुद्धि और स्थिरता में अन्तराय आते रहते हैं और आत्मा उन विघातक कारणों से संघर्ष भी करती रहती है। इस संघर्ष में सफलता प्राप्त कर जब संज्वलन संस्कारों को दबाती हुई आत्मा विकास की ओर गतिशील रहती है तब सातवें आदि गुणस्थानों को लाँघकर बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाती है । बारहवं गुणस्थान में तो दर्शन-शक्ति और चारित्र-शक्ति के विपक्षी संस्कार सर्वथा क्षय हो जाते हैं, जिससे दोनों शक्तियां पूर्ण विकसित हो जाती हैं। उस स्थिति में शरीर, आयु आदि का सम्बन्ध रहने से जीवन्मुक्त अरिहन्त अवस्था प्राप्त हो जाती है और बाद में शरीर आदि का भी वियोग हो जाने पर शुद्ध ज्ञान, दर्शन आदि शक्तियों से सम्पन्न आत्मावस्था प्राप्त हो जाती है। जीवन्मुक्त अवस्था तेरा और शरीर आदि मे रहित पूर्ण निाकर्म अवस्था चौदहवां गुणस्थान कहलाता है। ___ चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त आत्मा अपने यथार्थ रूप में विकसित होकर सदा के लिए सुस्थिर दशा प्राप्त कर लेती है। इसी को मोक्ष कहते हैं। आत्मा की समग्र शक्तियों के अत्यधिक रूप में अव्यक्त रहना प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान है और क्रमिक विकास करते हुए परिपूर्ण रूप को व्यक्त करके आत्मस्थ हो जाना चौदहवा अयोगिकेवली गुण