Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( ३२ ) (५) असंसक्ति-असंगरूप परिपाक से चित्त में निरतिशय आनन्द का प्रादुर्भाव होना।
(६) पदार्थाभाविनी-इसमें बाह्य और आभ्यन्तर सभी पदार्थों पर में इच्छायें नष्ट हो जाती हैं।
(७) तूर्यगा-भेदभाव का बिल्कुल भान भूल जाने से एक मात्र स्वभावनिष्ठा में स्थिर रहना । यह जीवन्मुक्त जैसी अवस्था होती है । विदेहमुक्ति का विषय उसके पश्चात् की तूर्यातीत अवस्था है ।
अज्ञान की सात भूमिकाओं को अज्ञान की प्रबलता से अविकासक्रम में और ज्ञान की सात भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञान की वृद्धि होने से विकास क्रम में गिना जा सकता है ।
बौद्धदर्शन में भी आत्मा के विकास-क्रम के बारे में चिन्तन किया गया है और आत्मा की संसार और मोक्ष आदि अवस्थायें मानी हैं। त्रिपिटक में आध्यात्मिक विकास का वर्णन उपलब्ध होता है । जिसमें विकास की निम्नलिखित ६ स्थितियाँ बताई हैं
(१) अन्ध पुथुज्जन, (२) कल्याण पुथुजन, (३) सोतापन, (४) सकदागामी, (५) औपपातिक, (६) अरहा ।
पुथुज्जन का अर्थ है सामान्य मानव । उसके अन्ध पुथुज्जन और कल्याण पुथुज्जन यह दो भेद किये गये हैं। जैनागमों में कर्म सम्बन्धी वर्णन की तरह बौद्ध साहित्य में भी दस संयोजनाओं (बन्धन) का वर्णन है।
अन्ध पुथुज्जन और कल्याण पृथुज्जन में दसों प्रकार की संयोजनायें होती हैं। लेकिन उन दोनों में यह अन्तर है कि पहले को आर्य दर्शन और सत्संग प्राप्त नहीं होता है, जबकि दूसरे को वह प्राप्त होता है । दोनों निर्वाणमार्ग से पराङ मुख हैं। निर्वाणमार्ग को प्राप्त करने