Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कमंस्तव कर लिया है । यह ग्रन्थकार द्वारा की गई गुणानुवादरूप स्तुति हुई और गाथागत थपिमो' क्रियापद द्वारा प्रणामरूप स्तुति की गई है।
कारण के बिना कार्य नहीं होता है । जीव का संसार में परिभ्रमण करना कार्य है और उसका कारण है कर्म । जब तक जीव संसार में रहता है, तब तक कर्मों की अन्ध, उदय आदि अवस्थायें होती रहती हैं। किन्तु जैसे-जैसे कर्मों का क्षय होने पर नवीन कर्मों का बन्ध होना कम हो जाता है, वैसे-वैसे कर्मों की सत्ता-शक्ति भी धीरे-धीरे निस्सत्व - निश्शेष होती जाती है और आत्मिक गुणों का क्रमशः विकास होते-होते अन्त में समग्ररूप में कर्मक्षय होने पर जीव शुभ आत्मम्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
जीव द्वारा इस शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष कहते हैं । परन्तु नवीन कर्म बांधने की योग्यता का जब तक अभाव नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मों की आत्यन्तिक निर्जरा नहीं हो जाती, तब तक कर्म का चन्धन होना सम्भव है। क्रमों की सिर्फ बन्ध्र और क्षय ये दो ही स्थितियां नहीं हैं, किन्तु फल देना आदि रूप और भी स्थितियाँ होती हैं। कमों की इन स्थितियों- अवस्थाओं को मुख्य रूप से बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता कहते हैं। इन अवस्थाओं में बन्धावस्था मुख्य है और बन्ध होने पर ही उदय, उदीरणा, सत्ता आदि स्थितियों होती हैं । इन्हीं अवस्थाओं का वर्णन क्रमशः इस ग्रन्थ में किया जा रहा है । जिनके लक्षण इस प्रकार हैं
बन्ध-मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय, योग के निमित्तों में शानावरणादि रूप से परिणत होकर अनन्तानन्त प्रदेश वाले सूक्ष्म कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ दूध-पानी के समान एकक्षेत्रावगाढ़ होकर मिल जाना बन्ध कहलाता है। मिथ्यात्वादि से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और बँधे हुए कर्मपुद्गलों के कारण