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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * ६७ *
ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशम और क्षपण
मोक्ष की ओर तेजी से ऊर्ध्वारोहण करने के लिए कर्मविज्ञान ने दो श्रेणियाँ बताई हैं- उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणी वाला सातवें गुणस्थान से मोहकर्म के सैनिकों का उपशमन-दमन करता हुआ चलता है। सर्वप्रथम बुद्धि, स्मृति, आत्म-ज्ञान एवं आत्म-विद्या को कुण्ठित, आवृत एवं विमूढ़ करने वाला अनन्तानुबन्धी कषाय का. तदनन्तर दर्शनमोहनीय कर्म का, फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुषवेद का उपशम करता है । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-मायालोभ का क्रमशः युगपत् उपशम करके तत्सदृश संज्चलन क्रोधादि का उपशम करता है। इस प्रकार उपशमश्रेणी वाला संसारयात्री क्रमशः आगे बढ़ता है, बीच-बीच में विश्राम लेता है, विघ्न-बाधाओं को शान्त करता हुआ आगे बढ़ता है। क्षपकश्रेणी वाला संसारऱ्यात्री मोहकर्म की चाल को सर्वथा निर्मूलन करता हुआ आगे बढ़ता है। दोनों श्रेणी के आरोहकों का मार्ग सातवें गुणस्थान से आगे फट जाता है । उपशमश्रेणी में मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों का सर्वथा उपशम किया जाता है जबकि क्षपकश्रेणी में उन्हीं प्रकृतियों को मूल से सर्वथा (क्षय) किया जाता है। यानी उपशमश्रेणी में केवल उन प्रकृतियों के उदय को शान्त किया जाता है, सत्ता तो बनी रहती है, जबकि क्षपकश्रेणी में उन प्रकृतियों की सत्ता ही नष्ट कर दी जाती है । उपशमश्रेणी में अन्तर्मुहूर्त के बाद पतन का भय है, क्षपकश्रेणी में पतनभय बिलकुल नहीं रहता । उपशमश्रेणी में केवल मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का ही उपशम होता है, जबकि क्षपकश्रेणी में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के साथ-साथ नामकर्म की कुछ प्रकृतियों तथा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म की प्रकृतियों का भी क्षय होता है। आगे उपशमश्रेणी में प्रकृतियों के उपशम के क्रम की तरह क्षपकश्रेणी में भी प्रकृतियों के क्षय का क्रम बताया है। दोनों की दौड़ मोक्ष की ओर है, पर एक सुस्ती से विश्राम लेता हुआ गति करता है, दूसरा तीव्र गति से सीधा गति करता हुआ मोक्ष के शिखर पर पहुँचकर ही विश्राम लेता है।
ऋणानुबन्ध: स्वरूप, कारण और निवारण
वैदिकधर्म-प्रतिपादित ऋणानुबन्ध को जैन-कर्मविज्ञान की दृष्टि से जन्म-जन्मान्तर से बँधे हुए शुभाशुभ कर्म की परम्परा कह सकते हैं । पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मबन्ध ही एक प्रकार का ऋण है, वह जिसका, जिसके साथ, जिस जन्म में बँधा है, उसका फलभोग अगले जन्म या जन्मों में उदय में आकर उसी जीव के निमित्त से होता है। फिर वह जीव देव, मनुष्य या तिर्यंच किसी भी रूप आकर उक्त बद्ध कर्म का ऋण उतारकर वसूल कर लेता है अथवा पारिवारिक सांसारिक सम्बन्धों से जुड़कर ऋण वसूल करता है, या उतारता है। वह ऋणानुबन्ध शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का हो सकता है। कभी-कभी एक भव में ही ऋणमुक्ति हो जाती है, और कभी कई भवों तक ऋणानुबन्ध-परम्परा चलती है। जैसे गुणसेन के जीव के साथ अग्निशर्मा के जीव की ऋणानुबन्ध- परम्परा नौ भवों तक चली थी। कभी-कभी समभाव से अशुभ ऋणानुबन्ध का फल भोगकर उसी भव में जीव मुक्त हो जाता है। मनुष्य का मनुष्य के साथ बँधा हुआ अशुभ ऋणानुबन्ध का उदय अशुभ होता है, कभी-कभी ऊँट, बैल आदि बनकर भी बँधा हुआ ऋणानुबन्ध चुकाना पड़ता है। कुछ सच्ची घटनाएँ देकर इन तथ्यों को प्रमाणित किया है। ऋणानुबन्ध के नियमों को जानने से बद्ध कर्मों का निरोध और क्षय आसान हो जाता है। अन्त में, ऋणानुबन्ध के अशुभ उदय को अप्रभावी, शान्त और क्षीण करने के कतिपय अनुभवयुक्त उपाय भी बताये गये हैं। वीतराग प्रभु से प्रार्थना भी एक अचूक उपाय है, अशुभोदय से शान्ति का ।
गबन्ध और द्वेपबन्ध के विविध पैंतरे
रागभाव और द्वेपभाव दोनों संसारी जीव की छद्मस्थ अवस्था समाप्त होने तक लगे रहते हैं। ये दोनों दो प्रकार के विद्युत् (ए. सी. और डी. सी.) के समान हैं। रागभाव खींचता है और द्वेषभाव झटका देकर दूर फेंकता है। रागभाव किसी व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति, पद, प्रतिष्ठा या शरीरादि के प्रति आसक्ति या मोह आदि के रूप में होता है, जबकि द्वेषभाव इन्हीं में से किसी के प्रति अरुचि, घृणा, ईर्ष्या, द्वेप, वैर-विरोध आदि के रूप में होता है। दोनों ही अष्टविध कर्मबन्ध के कारण हैं। मिथ्यात्व आदि तो बाद में कर्मबन्ध के कारण बनते हैं, सर्वप्रथम राग और द्वेष से ही कर्म के आनव और बन्ध का दौर शुरू होता है। प्रायः
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