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* मोक्ष के निकटवर्ती सोपान * २७ *
अर्थात् इस भूमिका में वेदनीयादि चार कर्म भी सींदरी अर्थात् जली हुई रस्सी की तरह (जलकर खाक हो जाने पर भी उसकी आकृति बनी रहती है, उसी प्रकार) सिर्फ आकृतिरूप में रहते हैं और उसी भवशरीर का जितना आयुष्य हो, उतना पूरा करने के लिए ही उतने काल तक टिका रहता है। इसलिए आयुष्य पूर्ण होते ही शीघ्र पुनः शरीर प्राप्त करने की योग्यता मिट जाती है अर्थात् अपुनर्जन्म-स्थिति स्वयंसिद्ध हो जाती है।
वेदनीयादि चार अघातिकर्म : जली हुई रस्सी के समान अकिंचित्कर आशय यह है कि जैसे रस्सी के जलकर राख हो जाने पर भी जहाँ तक उसे हवा न लगे और वह उड़े नहीं या कोई उसका ढेर करके आकार न बदले. वहाँ तक वह मूल आकार में कायम रहती है, वैसे ये वेदनीयादि चार (अघाति) कर्म भी जहाँ तक देहयोग बिलकुल निर्मूल न हों, वहाँ तक कायम रहते हैं।
चार घातिकर्मों की तरह चार अघातिकर्म
नामशेष क्यों नहीं हुए ? यहाँ एक शंका और उपस्थित होती है कि जैसे मोहनीय कर्म के जल जाने पर शेष तीनों घातिकर्म भी नामशेष क्यों हो गए? वे वेदनीयादि चार कर्मों की तरह, जली हुई रस्सी के आकार की तरह आकाररूप में क्यों नहीं रहे? इसका समाधान यह है कि पूर्वोक्त घातिकर्मों का आत्मा के जितना सीधा सम्बन्ध है, जबकि उतना इन चार अघातिकर्मों का आत्मा के साथ नहीं है, इन चारों का सम्बन्ध मुख्यतया देह के साथ है और परम्परा से जीव के साथ है। घातिकर्मों का नामशेष हुए बिना केवलज्ञानादि प्रकट नहीं हो सके और केवलज्ञानादि के बिना वीतरागता, उत्कृष्ट समता आदि नहीं प्राप्त हो सकती।।
चार अघातिकर्मों के टिके रहने से विशिष्ट लाभ दूसरी बात-केवलज्ञान हो जाने पर आत्मा को मुक्ति या सिद्धि के शिखर पर रज्जुवत् जलकर भस्म हुए उक्त चारों अघातिकर्म नहीं पहुँचाते तो और कौन पहुँचाता है ? अर्थात् आत्मा को जो ऊर्ध्व गति की रफ्तार प्राप्त होती है, वह अपने पूर्व शरीरगत प्रवाह में से ही प्राप्त होती है।
तीसरी बात-जैसे रम्मी के जल जाने पर उसकी राख कदापि बन्धन में नहीं बाँध सकती, वैसे केवलज्ञान हो जाने के बाद साधक को ये चारों कर्म बन्धन में नहीं बाँध सकते हैं; अपितु दूसरी तरह से एकाध नये ढंग से विशिष्ट उपयोगी
१. (क) “सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. १२८-१२९ . (ख) अपूर्व अवसर, पद्य १६
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