Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 532
________________ * ३७८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * होता है १७९. छद्मस्थ मुमुक्षु साधक की ज्ञान-स्वभाव में स्थिरता और अखण्डता कैसे रहे? १८०, ज्ञान-स्वभाव में स्थिरता के अभ्यासी के लिए विचारणीय बिन्दु १८१, ज्ञान-स्वभाव में एक बार स्थिर हो। जाने पर फिर अनावृत होकर ज्ञान सदैव प्रकाशमान रहता है १८१, एक बार ज्ञान-ज्योति सुसज्ज होकर निकलने पर केवलज्ञान-समुद्र में अवश्य मिलती है १८१, आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव का निर्णय करके उसमें एकाग्र होने की प्रेरणा १८२, सम्यग्दृष्टि आत्मा रागादि से या कर्ममल से मलिन आत्मा को भेदविज्ञानरूपी फिटकरी से पृथक् कर लेता है १८२, सम्यग्ज्ञान (ज्ञान) और मिथ्याज्ञान (अज्ञान) में अन्तर १८३, ज्ञान-स्वभाव में स्थिर रहने वाले व्यक्ति की वृत्ति-प्रवृत्ति १८३, शास्त्राध्ययन या शास्त्र-स्वाध्याय का मुख्य उद्देश्य १८४, आत्म-ज्ञान : कैसा हो, कैसा नहीं? १८४, सम्यग्ज्ञान और संवदेन का पृथक्करण करने वाला साधक ज्ञान-समाधि प्राप्त कर लेता है १८५, चतुश्चरणात्मक ज्ञान-समाधि से ज्ञान-स्वभाव में पूर्ण स्थिरता १८५, परमात्मभाव का द्वितीय गुणात्मक स्वभाव : अनन्त दर्शन : क्या और कैसे? १८५, दर्शन : क्या है, क्या नहीं ? १८६, दर्शन और ज्ञान की कार्य-प्रणाली में अन्तर १८६, आत्मा के दर्शन-स्वभाव का उपयोग और लाभ १८६, दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण सद्दर्शन न होना १८७, चक्षुदर्शनावरणीय कर्मवन्ध के हेतु और फल १८८, अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मबन्ध के हेतु और फल १८९, अवधिदर्शनावरणीय कर्मबन्ध के हेतु और फल १९०, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के आवरण में मोहकर्म का हाथ १९०, आवृत और सुषुप्त केवलदर्शन को जाग्रत एवं अनावृत करने के उपाय १९१, सामान्य आत्मा को केवलदर्शन की शक्ति प्राप्त है, पर अभिव्यक्ति क्यों नहीं और कैसे होगी? १९१, आत्म-दर्शनरूप स्वभाव की निष्ठा अनन्त (केवल) दर्शन तक पहुँचा सकती है १९२, परमात्मा का तृतीय आत्म-स्वभाव : अनन्त आनन्द (अव्याबाध-सुख) १९२, बाह्य सुख पराधीन और आत्मिक-सुख स्वाधीन है १९३, आत्मिक-सुख से सम्पन्न वीतरागी पुरुषों की निष्ठा, वृत्ति-प्रवृत्ति और समता १९४, पौद्गलिक सुख क्षणिक है, बाधायुक्त दुःखबीज है, कालान्तर में दुःखरूप है १९५, सुख-दुःख देने वाला न तो सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ है, मनुष्य की अपनी तदनुरूप कल्पना ही होती है १९६, सब तरह से धन-वैभवादि समृद्ध होते हुए भी अन्तर में व्याकुलता के कारण मनुष्य दुःखी होता है १९७, स्वभावनिष्ट सम्यग्दृष्टि जीव बाह्य संयोगों से सुखी-दुःखी नहीं होता १९७, आत्मार्थी पर-पदार्थों से सुख नहीं चाहता १९७, सम्यग्दृष्टि प्रतिकूल संयोगों में भी आत्मानन्द में रहता है १९८, यों आ सकती है आत्मा के अनन्त अखण्ड आनन्द-स्वभाव में स्थिरता १९८-१९९। (७) परमात्मभाव का मूलाधार : अनन्त शक्ति की अभिव्यक्ति पृष्ठ २०० से २३६ तक परमात्मा की तरह सामान्य मानवात्मा में भी अनन्त आत्मिक-शक्ति २00, इन आध्यात्मिक शक्तियों का मूल स्रोत : आत्मा २00, आत्म-शक्तियों से अपरिचितः जाग्रत करने में रुचि नहीं २0१. वे प्रायः निःसार बाह्य पदार्थों को पाने-खोजने में अपनी शक्ति लगाते हैं २0१, बौद्धिक आदि शक्तियों को जगाने में तत्पर विविध वैज्ञानिक आदि २०२, हमारे पूर्वज महापुरुषों ने सुपुप्त आध्यात्मिक शक्तियों को कैसे जाग्रत किया था? २०३, सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन में आत्म-शक्ति-संवर्द्धन, जागरण का मार्गदर्शन २०३, आत्म-शक्ति किनकी अभिव्यक्त होती है, किनकी नहीं? : भगवत्-प्रेरणा २०४, कौन आत्म-शक्ति से समृद्ध बनते हैं और कौन बनते हैं आत्म-शक्ति से हीन? २०५, आत्म-शक्तियों का सदुपयोग न करने वाले : चार प्रकार के व्यक्ति २०५, प्रथम प्रकार : शक्तियाँ शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगी, इस भय से उनका उपयोग न करने वाले २०६, शक्तियों का उपयोग करते रहने से वे घटती नहीं, बल्कि बढ़ती-विकसित होती हैं २०६. बुढ़ापे में शक्तियों का ह्रास हो जाता है फिर शक्तियों का दोहन व उपयोग व्यर्थ है २0७. शास्त्रज्ञ और विद्वान् भी शक्ति का यथोचित उपयोग करने से कतराते हैं २०७, आत्म-शक्तियों के दुरुपयोग, अपव्यय, असुरक्षा और अजागृति से वे प्रगट नहीं हो पाती २०८, मोक्षपथ में आत्म-शक्तियाँ प्रकट करने के अवसरों को यों खो देते हैं २०९, तथाकथित आत्मार्थी साधक भी अपनी आत्म-शक्तियों के जागरण के प्रति असावधान २०९. चार घातिकर्म किस प्रकार आत्म-शक्तियों को प्रकट नहीं होने देते? २१0, आत्म-शक्तियाँ कहाँ लगनी चाहिए थीं, कहाँ लग रही हैं ? २१४, आत्म-शक्ति जाग्रत होने के क्षणों में कषायों आदि से उसकी रक्षा करना कठिन २१४, आत्म-शक्ति की साधना : परमात्म-शक्तिरूप स्वभाव को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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