Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 591
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४३७ * केवलज्ञानावरण-जो कर्म लोक-अलोकगत सर्व तत्त्वों के प्रत्यक्ष दर्शक और अतिशय निर्मल केवलज्ञान को आवृत करता है, वह केवलज्ञानावरण है। केवलदर्शन-दर्शनावरण कर्म का पूर्णतया क्षय हो जाने पर दूसरे किसी की सहायता के बिना समस्त मूर्त-अमूर्त द्रव्यों को सामान्य से जानता-देखता है, वह केवलदर्शन है। केवलदर्शनावरणीय-जो केवलदर्शन को आच्छादित करता है, उसे केवलदर्शनावरणीय कहते हैं। केवलि-समुद्घात-आयुकर्म की स्थिति अल्प और वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति अधिक होने पर उसे अनाभोगपूर्वक (उपयोग के बिना ही) आयु के समान करने के लिए केवली भगवान् अपने आत्म-प्रदेश मूल शरीर से बाहर निकालते हैं, उसे केवलि-समुद्घात कहते हैं। कोष्ठबुद्धि-उत्कृष्ट धारणायुक्त जो पुरुष गुरु के उपदेश से अनेक ग्रन्थों से विस्तार से शब्दरूप बीजों को स्वबुद्धि से ग्रहण करके मिश्रण के बिना पृथक्-पृथक् अपने बुद्धिरूप कोठे में स्थापित कर लेता है; उसकी उस बुद्धि को कोष्ठबुद्धि कहते हैं। कौत्कुच्य-भाण्ड या विदूषक की तरह भ्रू, मुख, नेत्र, कान, ओठ, हाथ, पैर आदि द्वारा इस प्रकार की चेष्टा करना, जिसे देख कर अन्य जन हँसने लगें, पर स्वयं न हँसे, यह कायकौत्कुच्य है, इसी तरह वाणी से पशु-पक्षियों के स्वर का अनुकरण करना वाक्कौत्कुच्य है। यह श्रावक के आठवें अनर्थदण्डविरमणव्रत का एक अतिचार भी है। क्रिया-जीव के मन-वचन-काया से होने वाली कोई भी प्रवृत्ति, हलचल, स्पन्दन क्रिया है, वह दो प्रकार की है-साम्परायिकी और ईर्यापथिकी। साम्परायिकी क्रिया कषाययुक्त होती है, जबकि ईर्यापथिकी कषायरहित होती है, इसलिए स्थितिबन्ध और रसबन्ध नहीं होता। साम्परायिकी क्रिया कायिकी आदि के भेद से २४ प्रकार की है। ईर्यापथिकी क्रिया का एक प्रकार है। इस प्रकार कुल २५ क्रियाएँ हैं। क्रिया-(I) देशान्तर-प्राप्तिरूप परिस्पन्दनरूप द्रव्य की पर्याय क्रिया कहलाती है। मन-वचन-काया के व्यापार का नाम क्रिया है। (II) क्रिया नाम गति का भी है, जो प्रयोगगति, विनसागति और मिश्रिकागति के भेद से तीन प्रकार की है। (III) शास्त्रोक्त अनुष्ठान या धर्मानुष्ठान को भी क्रिया कहते हैं। क्रियारुचि-व्यवहार-सम्यक्त्व का एक भेद। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, समिति और गुप्ति के अनुष्ठान में जिसकी भावपूर्वक रुचि होती है, उसे क्रियारुचि कहते हैं। क्रियावादी-(I) जीव (आत्मा) आदि पदार्थों का अस्तित्व है, ऐसा जानने-मानने-कहने वाले क्रियावादी (आस्तिक) होते हैं। (II) केवल क्रिया से ही मोक्ष होता है, ऐसा एकान्तरूप से मानने वाला (मिथ्यात्वी)। क्रियास्थान-कर्मबन्ध का कारण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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