________________
* ४८६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
आदि का आरम्भ - समारम्भ करना, निरर्थक वनस्पति-छेदन करना, व्यर्थ ही इधर-उधर भटकना इसे प्रमादाचरित या प्रमादचर्या कहते हैं। आठवें अनर्थदण्डविरमणव्रत का यह एक अतिचार है।
प्रमार्जना- संयम - शुद्ध भूमि के देख लेने पर भी रजोहरण आदि से प्रमार्जन करके सोने, बैटने आदि चर्चा का यतनापूर्वक करना प्रमार्जना- संयम है। इसी का दूसरा नाम प्रमृज्य-संयम है।
प्रमोदभावना - (I) गुणीजनों के गुणों का चिन्तन करना, सम्यग्दृष्टि, व्रती, महाव्रती, ज्ञानी, संयमी गुणीजनों के प्रति मुख से प्रसन्नता, उल्लास, बहुमान तथा अनुराग का प्रकट होना प्रमोदभावना है। (II) जो गुणों (सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तप आदि धर्मों) में अधिक हैं, आगे बढ़े हुए हैं, उनके गुणों की प्रशंसा करना प्रमोदभावना है।
प्ररोहण - जिसमें कर्म अंकुरित होते हैं, उस कार्मणशरीर को प्ररोहण कहा जाता है।
प्रवचन - (I) श्रुतज्ञान को प्रवचन कहते हैं, तद्विषयक उपयोग से अभिन्न होने के कारण संघ अथवा प्रथम गणधर को भी प्रवचन कहते हैं। (II) द्वादश - अंगस्वरूप सिद्धान्त ( श्रुत) का नाम प्रवचन है। उक्त प्रवचन के सुनने, धारण करने, यथाशक्ति तदनुसार आचरण करने वाले महाव्रती, देशव्रती, अविरत - सम्यग्दृष्टि भी प्रवचन (संघ) रूप से परिगणित हैं।
प्रवचन-प्रभावना-आगमार्थ का नाम प्रवचन है, अथवा पूर्वोक्त संघ का नाम प्रवचन है, उसकी ख्याति, प्रशंसा, आदर बढ़े ऐसे कार्य करना, प्रवचन - प्रभावना है।
प्रवचन -भक्ति- द्वादशांगीरूप प्रवचन में प्रतिपादित अर्थ का अनुष्ठान - तदनुसार आचरण करना प्रवचन- भक्ति है।
प्रवचन-वत्सलता-तीर्थंकर नामगोत्र बाँधने का एक विशिष्ट कारण । (I) अर्हत्-शासन के अनुष्ठायी श्रुतधर, बाल-वृद्ध, तपस्वी - शैक्ष-ग्लान आदि का संग्रह, उपग्रह (उपकार) और अनुग्रह करना | (II) जिस प्रकार गाय बछड़े के प्रति वात्सल्य रखती है, उसी प्रकार समस्त साधर्मिक भाई-बहनों, साधु-साध्वियों के प्रति परस्पर वात्सल्यभाव (शुद्ध प्रेमअहेतुक निःस्वार्थ अनुराग) रखना प्रवचन -वत्सलता है।
प्रवीचार - मैथुनोपसेवन का नाम प्रवीचार है।
प्रव्रज्या - (I) सर्वसंगपरित्याग का नाम प्रव्रज्या है | (II) गृह, परिग्रह तथा मोह से रहित, बाईस परीषहों और कषायों पर विजय प्राप्त कराने तथा समस्त आरम्भ एवं सावद्ययोग का परित्याग कराने वाली आईती दीक्षा प्रव्रज्या है। भगवतीसूत्रवर्णित दानामा और प्रणामा प्रव्रज्या जिन- प्ररूपित नहीं है, अतः वे प्रव्रज्याएँ सम्यग्दृष्टि - साधक के लिए ग्राह्य नहीं हैं।
प्रशम - (I) रागादि दोषों की उपशान्ति या उनकी तीव्रता के अभाव का नाम प्रशम है। यह सम्यक्त्व के पाँच लक्षणों में प्रथम लक्षण है। (II) अनन्तानुबन्धी कषायों ( रागादि) का, सम्यग्दर्शन-मिथ्यादर्शन-मिश्रदर्शन की तीव्रता का अभाव प्रथम है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org