Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 652
________________ * ४९८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * (म) मतिज्ञान–(I) इन्द्रियों और मन से ( सम्यग्दृष्टि को ) होने वाला यथायोग्य पदार्थज्ञान मतिज्ञान या आभिनिबोधिकज्ञान कहलाता है। यही ज्ञान मिथ्यादृष्टि को होता है तो मतिअज्ञान कहलाता है। होता है, इन्द्रियों और मन को ही, किन्तु सम्यग्दृष्टि के ज्ञान की तरह उसके साथ आत्म-लक्षी दूरदर्शी दृष्टि नहीं होती । ( II) मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से किसी पदार्थ का मननपूर्वक ज्ञान होना मतिज्ञान है। (III) किसी प्रकार से पदार्थ का परिज्ञान हो जाने पर भी अपूर्व तथा उसके भूत-भविष्य की तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ के आलोचनरूप बुद्धि होती है, उसका नाम मति है | संज्ञा, स्मृति, चिन्ता, आभिनिबोध ये मति शब्द के समानार्थक हैं। मतिपूर्वक ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। मात्सर्य-(I) दूसरे की उन्नति देख कर डाह करना, खेद खिन्न होना। (II) अतिथिसंविभागव्रत का एक अतिचार | दूसरे दाता को देख कर 'क्या मैं इस दरिद्र से भी ही हूँ ?' इस प्रकार के मात्सर्यभाव से साधु-साध्वी को आहारादि देना मात्सर्य दोष है। मान ( कषाय-विशेष ) - (I) जाति आदि के या ज्ञानादि गुणों के आश्रय से दूसरों के प्रति नम्रतापूर्ण व्यवहार न करना । (II) दूषित अभिप्राय ( पूर्वाग्रह या कदाग्रह) को न छोड़ना या यथोक्त शिष्टजनों - गुरुजनों द्वारा कथित वचन को भी ग्रहण न करना मानकषाय है। यह तीव्रतर तीव्र, मन्द और मन्दतर के स्तर से चार प्रकार का है। मान, गर्व, अहंकार, मद, स्तब्ध, घमण्ड आदि एकार्थक हैं। 1 माननिःसृता असत्यभाषा–मानयुक्त (गर्वस्फीत) हो कर जो वचन कहा जाये, वह माननिःसृता असत्यभाषा कही जाती है। मानव - जो मनोज्ञानरूपी नेत्रों से युक्त हो कर हेयोपादेय पदार्थों को जानते मानते हैं, वे मानव हैं। मानसजप - एकमात्र मन के व्यापार से जो स्व-संवेद्य जाप होता है, वह मानसजप है। त्रिविध जपों में यह प्रथम है। मानसतप - मन की प्रसन्नता, सौम्यत्व ( स्वभावतः शान्त परिणति, मौन, आत्म-विनिग्रह (मनोनिग्रह) एवं भाव संशुद्धि (परिणामों की निर्मलता ), इन्हें मानसता कहा जाता है। मानसिकविनय-मनोविनय - सात प्रकार के मोक्षलक्षी विनयों में से एक। (1) पापका विरुद्ध आचरण की परिणति को रोकना, प्रिय एवं हितकर मार्ग में परिणत (तत्पर| करना मानसिकविनय है। अकुशल ध्यान (दुर्ध्यान) को प्राप्त मन को रोकना, कुशल (शुभ) ध्यान में मन को उद्यत = प्रवृत्त करना तथा मन को दुष्ट परिणामों से हटा का शुभ योग में स्थापित करना भी मनोविनय है । मानसध्यान-एकवस्तु-विषयक मन की एकाग्रता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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