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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ५१७ *
विष-वाणिज्य-सोमल, पोटेशियम साइनाइड, तेजाब आदि विषों का तथा विषैले जानवरों-सर्प, छिपकली, बिच्छू, नेवला, सांडा, गोह आदि को पकड़वा कर उनसे विविध दवाइयाँ या सूप या तेल आदि बना-बना कर बेचना, ये सब चीजें विष-वाणिज्य में गिने जाते हैं। यह कर्मादान है।
विसंवाद-विपरीत प्रतीति।
विसंवादन-स्वर्ग-मोक्षादि-साधक समीचीम क्रियाओं में प्रवृत्त किसी दूसरे व्यक्ति को मन-वचन-काय की कुटिलता से ‘ऐसा मत करो, ऐसा करो' इस प्रकार से बहकाने, वंचना करने को विसंवादन कहते हैं।
विस्तार-रुचि (सम्यक्त्व का एक भेद)-प्रमाण, नय, निक्षेप आदि विस्तृत उपायों से अंगशास्त्र, पूर्वशास्त्र आदि में प्ररूपित तत्त्वों को जान कर जो रुचि या श्रद्धा होती है, उसे विस्तार-रुचि, विस्तार-दृष्टि या विस्तार-सम्यक्त्व कहते हैं।
विहायोगति-नामकर्म-(I) (दिगम्बर-परम्परानुसार) विहायस् नाम आकाश का है। जिस कर्म के उदय से जीव का आकाश में गमन निष्पन्न होता है, उसे विहायोगति-नामकर्म कहते हैं। (II) (श्वेताम्बर-परम्परानुसार) जिस कर्म के उदय से जीव शुभ या अशुभ गति (गमन = चाल) से युक्त होता है, वह विहायोगति- नामकर्म कहलाता है। इसके दो भेद हैं-शुभ विहायोगति और अशुभ विहायोगति।
वीचार-अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण (परिवर्तन) को वीचार कहते हैं। यह प्रशस्तध्यान का विषय है।
वीतराग-मोहनीय कर्म के क्षय से जीव वीतराग (राग-द्वेष से रहित) होता है।
वीतराग-कथा-गुरु और शिष्य अथवा तत्त्वज्ञान के विशिष्ट विद्वानों के बीच में जब भी किसी वस्तुस्वरूप के निर्णय की बात चले, तब परस्पर वीतरागता या वीतराग को लक्ष्य में रख कर चलना वीतराग कथा है।
वीतराग-चारित्र-रागादि तथा अपध्यान आदि समस्त विकल्पों से रहित तथा स्व-संवेदन से उत्पन्न स्वाभाविक सुख के रसास्वाद से युक्त जो चारित्र होता है, उसे वीतराग-चारित्र कहते हैं।
वीतराग-सम्यक्त्व-७ कर्मप्रकृतियों का सर्वथा क्षय हो जाने पर आत्मा में जो निर्मलता होती है, उसे वीतराग-सम्यक्त्व कहा जाता है।
वीर-(I) जो कर्मों का विदारण करता है तथा तपस्या से सुशोभित है और तप तथा वीर्य से युक्त है, उसे वीर कहा जाता है। (II) रागादि शत्रुओं पर जो विजय प्राप्त कर लेता है, वह वीर कहलाता है।
वीर्य-(I) द्रव्य की अपनी शक्ति का नाम वीर्य है। (II) वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या शयोपशम से होने वाला आत्मा का परिणाम वीर्य है।
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