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* ५३४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
स्पर्धक - (I) वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते हैं। (II) जिनमें क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है, वे स्पर्धक होते हैं। (III) वस्तुतः अविभाग- परिच्छिन्न कर्मप्रदेश रसभाग-प्रचय-पंक्ति से क्रमवृद्धि व क्रमहानि होना स्पर्धक कहलाता है | (IV) श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात वर्गणाओं को लेकर एक स्पर्धक होता है।
स्पर्शेन्द्रिय-वीर्यान्तराय और प्रतिनियत इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग-नामकर्म के लाभ के आश्रय से जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है, स्पर्शानुभव होता है, उसे स्पर्शेन्द्रिय कहते हैं।
स्पर्श-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में कठिनादि स्पर्श उत्पन्न होता है, उसे स्पर्श - नामकर्म कहते हैं ।
स्फोटकर्म : स्फोटजीविका - बारूद आदि से पत्थरों को फोड़ने का सुरंग विछा कर विस्फोट करने का धंधा करना स्फोटकर्म या स्फोटजीविका है। यह १५ कर्मादानों में से एक है।
स्वलिंगसिद्ध-पूर्व भावप्रज्ञापनीय की अपेक्षा से जो रजोहरणादि स्वलिंग (अपने संघ के निर्धारित वेश) से सिद्ध हुए हैं, वे । उनके केवलज्ञान को स्वलिंगसिद्ध केवलज्ञान कहते हैं।
स्वभाववाद - काँटों की तीक्ष्णता कौन करता है ? मृग, मोर आदि पक्षियों को विविध रंगों से कौन चित्रित करता है ? कोई भी नहीं। वह सब स्वभाव से ही हुआ करता है। इस प्रकार का कथन स्वभाववाद है।
स्वयं बुद्ध - मिथ्यात्वरूपी निद्रा के विनष्ट हो जाने से सम्यक् श्रेष्ठ बोधि को स्वयं प्राप्त बुद्ध स्वयंसम्बुद्ध कहलाते हैं।
स्वाध्याय- अपने लिए जो अध्ययन हितकर हो अथवा जो सम्यक् अध्याय हो, वह स्वाध्याय है । वह पाँच प्रकार का है।
स्वास्थ्य - दुःख के कारणभूत कर्मों के विनष्ट हो जाने पर जो निर्वाध स्वाभाविक सुख उत्पन्न होता है, वही स्वास्थ्य का लक्षण है।
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हितभाषण - जिस भाषण का फल मोक्षपद प्राप्ति हो ।
हिंसा - प्रमादयुक्त योग से प्राणियों के प्राण की विराधना - विघात करना, उन्हें हानिक्षति पहुँचाना हिंसा है।
हिंसप्रदान हिंसादान- प्राणिवधजनक तलवार, परशु, भाला आदि किसी का वध करने की नीयत से देना । यह अनर्थदण्डविरमणव्रत का एक अतिचार है।
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हिंसानन्द रौद्रध्यान - तीव्र हिंसा आदि में अहर्निश रचापचा रहना, उसी में आनन्द मानना । हिंसा में अतिशय अनुराग रखना। इसे हिंसानुवन्धी रौद्रध्यान भी कहते हैं। हीनाधिक मानोन्मान - तौल और माप में लेते-देते समय कमोवेश करना। यह तृतीय अणुव्रत का अतिचार है।
use संस्थान -जिसके उदय से शरीर के सभी अंग बेडौल हों, विरूप हों, प्रमाण और लक्षण से हीन हों, उसे हुण्डक संस्थान - नामकर्म कहते हैं।
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