Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 674
________________ * ५२० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * वैनयिकी प्रज्ञा-वैनयिकी बुद्धि-विनयपूर्वक १२ अंगशास्त्रों के पढ़ने वाले के या 'पर' का = अनुभवियों, महत्तरों-बुजुर्गों का विनय करने से जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह वैनयिकी बुद्धि या प्रज्ञा है। विनय यानी सेवा-शुश्रूषा (गुरु आदि की) जिसकी कारण है या जिसमें उसकी प्रधानता है, वह भी वैनयिकी बुद्धि कहलाती है। ___ वैभाविकभाव-जीव के अपने गुणों में जिनसे संक्रमण, परिवर्तन या विकार होता है, वे कषाय, राग, द्वेष, मोह, ममत्व, अहंत्व आदि वैभाविकभाव कहलाते हैं। वैमानिक (देव)-जिनमें रहते हुए जीव अपने आपको विशिष्ट पुण्यशाली मानते हैं, वे विमान हैं और उनमें रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। वैयावृत्य (आभ्यन्तरतप का एक भेद)-(I) कायपीड़ा, अशक्ति, रुग्णता, व्याधि, मार्गश्रम से श्रान्त, चोर, दुष्ट, दुर्जन आदि से उपद्रुत, हिंस्र पशुओं से पीड़ित, शासनकर्ता आदि से बाधित, नदी आदि से अवरुद्ध, परीषह, मिथ्यात्व तथा दुर्भिक्ष आदि संकटों से ग्रस्त आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष (नवदीक्षित), ग्लान, गण, कुल, संघ (चतुर्विध संघ), साधु और समनोज्ञ (साधर्मिक), इन दस उत्तम सेवा-शुश्रूषा-पात्रों को उन-उन संकटों से-आपदाओं से व्यावृत्त करने = दूर करने, का जो कर्म या भाव है, उसे वैयावृत्य कहते हैं। (II) गुणीजनों पर किसी प्रकार का दुःख, संकट, विपत्ति आ पड़ने पर उनका निरवद्य वृत्ति से अप्रत्युपकारभावना से प्रतीकार करना-अपनयन करना वैयावृत्य है। गुणवान् साधुवर्ग या धर्मसंघ, गण आदि पर दुःख आ पड़ने पर निर्दोष उपाय द्वारा उसे दूर करने का निरन्तर विचार या चिन्तन करते रहना वैयावृत्यभावना है। वैयावृत्य-योग-जिन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, प्रवचन-वात्सल्य, अरहन्त-भक्ति, बहुश्रुत-भक्ति आदि भावों द्वारा जीव अपने योगों को पूर्वोक्त वैयावृत्य में योजित करता है, उसका नाम वैयावृत्य-योग है। वैराग्य-शरीर, विषयभोग तथा संसार (जन्म-मरणादि) आदि अनिष्ट पर- वस्तुओं पर प्रीतिरूप-आसक्तिरूप रागभाव का नष्ट हो जाना विराग है, विराग की अवस्था वैराग्य है। वैनसिकबन्ध-पुरुष के प्रयत्न के बिना पुद्गलों में परस्पर बन्ध हो जाना वैनसिकबन्ध है। व्यंजनावग्रह-जिससे अर्थ व्यक्त होता है, उसे व्यंजना कहते हैं। श्रोत्रादि इन्द्रियों में शब्दादिरूप से परिणत पुद्गल-ग्रहण करने पर भी दो-तीन आदि समयों में व्यक्त नहीं हो पाते। किन्तु वे बार-बार अवग्रह होने पर व्यक्त होते हैं। अतः व्यक्त ग्रहण से पूर्व जो उनका अवग्रह (अव्यक्तरूप से) होता है, वही व्यंजनावग्रह है। (अर्थ का) अव्यक्तरूप से ग्रहण होना व्यंजनावग्रह है। ___ व्यंजनावग्रहावरणीय-जो कर्म व्यंजनावग्रह को आवृत करता है, वह व्यंजनावग्रहावरणीय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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