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* ५१८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
र्यान्तराय कर्म - जिस कर्म के उदय से वीर्य की उत्पत्ति में अन्तराय पड़े यानी किसी ज्ञानादि की आराधना में कोई साधक शक्ति लगाना चाहे परन्तु इस कर्म के उदय से वह शक्ति न लगा सके, वहाँ वीर्यान्तराय कर्म समझना चाहिए। (II) शरीर निरोग होने तथा यौवन अवस्था होने पर भी जिसके उदय से प्राणी अल्पप्राण हो जाये। (III) अथवा शरीर बलिष्ठ होने पर भी तथा प्रयोजन सिद्ध होने की सम्भावना होने पर भी प्राणी हीनबल व पस्तहिम्मत होने से उसमें प्रवृत्त ही नहीं होता उसका वह कारणभूत कर्म है- अन्तराय कर्म ।
वृत्ति-संक्षेप तप-वृत्ति परिसंख्यान तप - अपनी स्वाद-लालसा की वृत्ति को कम ( संक्षिप्त ) करने के लिए साधु द्वारा भिक्षाचरी के लिए गृह, एक पाड़ा . ( मोहल्ला) अथवा दरिद्रदाता आदि के घर से भिक्षा के विषय में परिमाण करना अथवा (श्रावक के पक्ष में) खाद्य द्रव्यों की गिनती रखना वृत्ति-संक्षेप है।
वेद - जो अनुभव में आये, वह वेद है । आत्म-प्रवृत्ति से जो मैथुन क्रिया के प्रति मुग्ध करता है - सम्मोह उत्पन्न करता है, वह वेद - नोकषाय है। यह तीन प्रकार का है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद |
वेद (श्रुत) - जो समस्त पदार्थों को वर्तमान में जानता है, भविष्य में जानेगा और भूतकाल में जान चुका है, उसे वेद कहते हैं । श्रुत के वाचक ४१ नामों में से एक है।
वेद = वेदन-सुख-दुःख आदि का वेदन- अनुभव करना अथवा कर्मों का शुभ-अशुभ फल वेदना = भोगना, अनुभव करना = वेद या वेदन कहलाती है। वेद वेदनकर्त्ता जीव का भी एक पर्याय है।
वेदक-सम्यक्त्व-प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जो जीव दले जाने वाले धान के छिलके, कण और तन्दुल, इन तीन विभागों के समान मिथ्यादर्शन कर्म को मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, इन तीन भागों में विभाजित कर सम्यक्त्वप्रकृति का अनुभव (वेदन) करता है। वह सद्भूत पदार्थों के श्रद्धान के फलस्वरूप वेदक सम्यग्दृष्टि होता है।
वेदना-विवक्षाभेद से वेदना का अनेक अर्थों में प्रयोग होता है । यथा - (१) कर्म के उदय का नाम वेदना है। (२) कर्म के अनुभव = कर्मफल के वेदन ( भोगने ) का नाम वेदना या वेदन है। (३) आठ प्रकार के कर्मद्रव्य का नाम वेदना है । ( ४ ) सुख-दुःख का नाम वेदना है। (५) उदय में प्राप्त हुए वेदनीय कर्म के द्रव्य को ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा वेदना कहा जाता है। (६) शब्दनय की अपेक्षा वेदनीय कर्मद्रव्य के उदय से जो सुख-दुःख होते हैं, उनको तथा आठों कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम (अनुभव - अनुभाव ) को भी वेदना कहा गया है।
वेदना (आर्त्तध्यान ) - (I) शूल रोग आदि की पीड़ा होने पर उसके वियोग के लिए तथा भविष्य में उसका संयोग न हो, इसके लिए जो चिन्ता ( व्याकुलता ) होती है, उसका नाम वेदना है। (II) वात, पित्त, कफ आदि के विकार से शरीर में जो पीड़ा होती है, उसके कारण हुए आर्त्तध्यान को भी वेदना कहते हैं।
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