Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 681
________________ * पारिभाषिक शब्द कोष * ५२७ * सान्निपातिकभाव-औदयिक, औपशमिक आदि भावों में दो-तीन आदि भावों का संयोग। सम्मिश्राहार-सचित्त के साथ अचित्त आहार का मिश्रण करके जो आहार निष्पन्न किया हो, वह। सप्तभंगी-प्रश्न के वश एक ही वस्तु में जो प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से अविरुद्ध विधि-निषेध रूप सात प्रकार के विकल्प किये जाते हैं, उसे सप्तभंगी कहते हैं। यथास्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्याद् अस्ति-नास्ति स्याद् अवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य, स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य। ये सात भंग (विकल्प) सप्तभंगी कहलाते हैं। स्याद्वाद-(1) अनेकान्तस्वरूप अर्थ के कथन का नाम स्याद्वाद है। (II) जो विरोध का मथन करता है, सापेक्षदृष्टि से समन्वय करता है, वह स्याद्वाद है। समचतुरन-संस्थान-नामकर्म-जिस नामकर्म के उदय से शरीर में सब ओर मान, उन्मान और प्रमाण हीनाधिक नहीं होता, अंग-उपांग अविकल और अधिकृत अवयवों में पूर्ण हों, आकार भी ऊपर, नीचे व तिरछे में समान हो, इस प्रकार शरीरगत अवयवों की रचना समान विभागों को लिए हुए हो, वह समचतुरस्र-संस्थान कहलाता है। समता-शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण, स्वर्ण-मिट्टी आदि पर राग-द्वेष के अभाव का नाम समता है। जीवन-मरण, संयोग-वियोग, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि अवस्थाओं में भी राग-द्वेष न करना समता है। ___ सम-धी-अहंकार, ममकार से रहित हो कर मान, मद, मत्सरभाव का त्याग करके जो महापुरुष निन्दा-स्तुति में हर्ष-विषाद को प्राप्त नहीं होता है, उस प्रशस्त व्रतों से युक्त महापुरुष को सम-धी कहते हैं। __समनस्क-(I) जो संज्ञी जीव हैं, वे समनस्क कहलाते हैं। (II) जिसके आश्रय से जीव दीर्घकाल तक स्मरण रख सकता है, भूत-भविष्य के विचार के साथ-साथ कर्त्तव्य कार्य का भी विचार कर पाता है. ऐसी सम्प्रधारण संज्ञा में प्रवर्त्तमान जीव संज्ञी = सुमनस्क होते हैं। सम्प्रधारण संज्ञा के आश्रय से ही संज्ञी समझना चाहिए, न कि आहारादि चार संज्ञाओं के आश्रय से। समनोज्ञ-बारह प्रकार के वन्दन-भोजनादि व्यवहाररूप सम्भोगसहित जिनके साथ व्यवहार होते हैं, वे परस्पर समनोज्ञ या साम्भोगिक कहलाते हैं। समभिरूढ़नय-वर्तमान पर्याय को प्राप्त पदार्थों को छोड़ कर दूसरे पदार्थ में शब्द की प्रवृत्ति न हो, उसे समभिरूढ़नय कहते हैं। समय-शपथ, आचार, काल, सिद्धान्त, प्रतिज्ञा और आत्मा, इन अर्थों में प्रयुक्त होने वाला शब्द स्व-समय-(I) स्व-सिद्धान्त। (II) जीव जब ज्ञान-दर्शन-चारित्र में स्थित होता है, तब उसे स्व-समय जानना चाहिए। समय-विरुद्ध-स्व-सिद्धान्त विरुद्ध कथन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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