Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 679
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ५२५ * श्रमण-जो पंससमितियों से युक्त है, तीन गुप्तियों से संरक्षित है, पाँच इन्द्रियों से संवृत है. कषायों का विजेता, दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, निन्दा-प्रशंसा में, मिट्टी के ढेले और स्वर्ण में तथा जीवन-मरण में सम रहता है। ऐसे संयत को श्रमण कहते हैं। श्राद्ध-जो देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा रखता है, श्रद्धागुण से युक्त है, वह श्राद्ध है। यह श्रावक या श्रमणोपासक का पर्यायवाची शब्द है। श्रावक-जो श्रद्धालु है, धर्मसंघ की सेवा-शुश्रूषा करता है, दान का बीज बोता है, जैनधर्म-दर्शन का स्वीकार करता है, यथाशक्ति व्रत-नियम, त्याग-प्रत्यख्यान करता है, पापकर्मों को काटता है, यथाशक्ति संयम करता है। जो बारहव्रतरूप श्रावकधर्म का पालन करता है, वह श्रावक है। श्रुतज्ञान-श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशमरूप अन्तरंग कारण तथा मतिज्ञानरूप बहिरंग कारण के होने पर जो इन्द्रियातीत विषय के आलम्बन से स्पष्ट ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहा है। . श्रुतावर्णवाद-जिनप्रज्ञप्त आगमों की बातों को ले कर उनकी हँसी उड़ाना, निन्दा करना, उनकी यथार्थता पर शंका करना श्रुतावर्णवाद है। श्रुतविनय-श्रुतविनय चार प्रकार का है-(१) सूत्रग्राहण-(उद्युक्त हो कर शिष्य को श्रुत का ग्रहण कराना, (२) अर्थ-श्रावण (प्रयत्नपूर्वक अर्थ को सुनाना), (३) हितप्रदान (जिस-जिस साधक के लिए जो-जो, जितना-जितना योग्य है, उसे वह-वह और उतना-उतना सूत्र और अर्थ के रूप से दिया जाना), और (४) निःशेषवाचन (समाप्ति पर्यन्त जो वाचन किया जाये)। श्रुतस्थविर-जो स्थानांग और समवायांगसूत्र का ज्ञाता हो, वह श्रुतस्थविर कहलाता है। __ श्रुतातिचार-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धि के बिना श्रुत (शास्त्र) का पठ न-पाठन करना अतिचार है। __श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह-श्रोत्रेन्द्रिय के आश्रय से होने वाला अमुक सीमा तक के अर्थ = पदार्थ का अवग्रह (ग्रहण = ज्ञान) करना। षट्स्थान-वृद्धि-अनन्त भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि; ये षट्स्थान-पतित वृद्धि के रूप हैं। ___षट्स्थान-हानि-अनन्त भागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि और अनन्त गुणहानि; ये षट्स्थान-पतित हानि के रूप हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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