Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 677
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ५२३ * शम-(I) दर्शनमोहनीयस्वरूप मोह और चारित्रमोहनीस्वरूप क्षोभ इन दोनों से रहित आत्मा के परिणाम को शम कहते हैं। (II) दुष्ट अनन्तानुबन्धी कषायों उदयाभाव का नाम शम है। चारित्र, धर्म और शम एकार्थक हैं। शरीर-नामकर्म-जिसके उदय से आत्मा के औदारिक आदि शरीर की रचना होती है, यह शरीर-नामकर्म कहलाता है। शरीर-पर्याप्ति--तिलों के खल भाग के समान खलभागरूप में परिणत पुद्गल स्कन्धों को अस्थि आदि स्थिर-अवयवरूप से तथा तैल-समान रस-भाग को रस, रक्त, मज्जा, चर्बी और वीर्य आदि द्रवरूप अवयवों द्वारा औदारिक आदि तीन शरीररूप में परिणमन की शक्ति से युक्त स्कन्धों की जो पर्याप्त प्राप्ति होती है, उसे शरीर-पर्याप्ति कहते हैं। शरीरबन्धन-नामकर्म-जो पूर्वबद्ध और वर्तमान में बाँधे जाने वाले औदारिक आदि शरीरगत पुद्गलों के सम्बन्ध का कारण है, उसे शरीरबन्धन-नामकर्म कहते हैं। शरीरसंघात-नामकर्म-उदय-प्राप्त जिन पुद्गल-स्कन्धों द्वारा बन्धन-नामकर्म के उदय से बन्ध को प्राप्त हुए शरीरगत पुद्गल-स्कन्धों की मृष्टता (शुद्धि या चिकनापन) की जाती है, उसका नाम शरीरसंघात नामकर्म है। शान्ति-कर्मजनित संताप का उपशम होना। शासनदेव-जैनशास्त्र की रक्षा करने तथा विघ्न-बाधाओं को दूर करने वाले शासनदेव-देवी कहलाते हैं। शास्त्र-जो आप्त के द्वारा कथित है, कुवादियों द्वारा खण्डनीय नहीं है, जिसमें प्रत्यक्ष और अनुमान से विरोध सम्भव नहीं है, जो वस्तुस्वरूप का यथार्थ उपदेष्टा व समस्त प्राणियों के लिए हितकर होता है एवं कुमार्ग = मिथ्यात्व आदि से बचाने वाला होता है, उसे शास्त्र कहते हैं। ___ शिक्षाव्रत-शिक्षा कहते हैं-पुनः पुनः परिशीलन = अभ्यास करने को अथवा विद्या को। शिक्षा के लिए अथवा शिक्षा की प्रधानता से युक्त जो व्रत ग्रहण किया जाय, वह शिक्षाव्रत है। श्रावक के लिए ४ शिक्षाव्रत बताये गये हैं। शिव-जिस महान् देव ने अतिशय कल्याणकारी, शान्त परमसौख्यरूप, अविनश्वर, मुक्तिपद को प्राप्त कर लिया है, वह शिव है। 'शिव' सिद्धिगति का भी एक विशेषण है। - शिष्य-जो गुरुभक्त, विनीत, भवभीरु, धर्मात्मा, बुद्धिमान्, शान्तचित्त, आलस्यरहित और शिष्ट हो, वही शिष्य कहलाता है। ____ शीत-नामकर्म-जिस नामकर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में शीतता (ठण्डक) होती है, वह। शीत-परीषहजय-अत्यन्त कड़ाके की ठण्ड पड़ रही हो, ठण्डी हवाएँ कलेजे को चीर रही हों, उस समय भी नग्न या परिमित वस्त्रों में रह कर समभाव से ज्ञानभाव में रमण : करते हुए उसे सहना शीत-परीषहजय है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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